कर्नाटक में हाईवोल्टेज सियासी ड्रामा

Highvoltage Political Drama in Karnataka

कर्नाटक में सत्ता की खींचतान और नाटक पूरे उफान पर है। कांग्रेस और जेडीएस द्वारा सरकार बचाने की तमाम कवायद एक एक कर धाराशायी होती नजर आ रही है। एक तरफ जहाँ कांग्रेस के 10 और जेडीएस के 3 विधायकों ने अपना इस्तीफा सौंप दिया है, वहीँ अब निर्दलीय विधायक भी सरकार से कन्नी काटने लगे हैं। इसी बीच कर्नाटक सरकार के डिप्टी सीएम सहित कांग्रेस के सभी मंत्रियों ने अपना इस्तीफा सौंप दिया है, जिसके बाद अब जेडीएस के भी सभी मंत्रियों ने अपना इस्तीफा सौंप दिया है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस के हाथ से कर्नाटक फिसल गया है। वास्तव में कई वर्ष पूर्व जो गलती भाजपा ने यूपी में बसपा से साझा सरकार का मुख्यमंत्री बनवाकर की थी, वही कांग्रेस ने कर्नाटक में कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप कर की थी। हश्र दोनों ही मामलों में एक जैसा हुआ। इस संकट से निजात पाने के लिए कर्नाटक में बैठकों का दौर जारी है।

मुख्यमंत्री कुमारस्वामी को इस वजह से अपनी अमेरिका यात्रा को बीच में ही छोड़कर बेंगलुरु वापिस लौटना पड़ा। आंकड़ों के हवाले से बात करें तो कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी लेकिन बहुमत से सात-आठ सीटें उसे कम मिलीं। पूरे नतीजे आने के पहले ही सोनिया गांधी ने कुमार स्वामी के पिता पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा से बात कर उनके बेटे को मुख्यमंत्री बनवाने का प्रस्ताव दे डाला। राज्यपाल चूंकि भाजपा के थे इसलिए उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को सरकार बनाने का अवसर दिया जरूर लेकिन उनकी दशा वही हुई जो 1996 में बनी अटल जी की 13 दिन की सरकार की हुई। दरअसल भाजपा तोडफोड़ का अवसर चाहती थी लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण विश्वास मत आनन-फानन में पेश करना पड़ा जिसमें वह विफल रही और फिर कांग्रेस के समर्थन से कुमार स्वामी सत्ता पा गए।

कर्नाटक की राजनीति में सत्ता हासिल करने के लिये ऐसे कई नाटक पहले भी कई बार हुये हैं। सरकार के गठन से लेकर आज तक कर्नाटक में सरकार सहजता से चल नहीं पायी। कुमार स्वामी इससे पूर्व भी बीजेपी की मदद से मुख्यमंत्री बने थे लेकिन उन्होंने उसके साथ वही किया जो अतीत में मायावती उप्र में कर चुकी थी। वैसे भी कुमार स्वामी की छवि एक भ्रष्ट नेता की रही है। उनकी एकमात्र योग्यता पूर्व प्रधानमन्त्री का पुत्र होने से ज्यादा नहीं है। कांग्रेस को हरवाने में भी देवगौड़ा परिवार का खासा योगदान रहा। लेकिन महज भाजपा को रोकने के लिए सोनिया ने यह दांव चला जिसको तात्कालिक सफलता भले मिल गयी हो लेकिन पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को कुमारस्वामी की सत्ता बर्दाश्त नहीं हुई।

यह घटनाक्रम अप्रत्याशित इसलिए नहीं है कि इस देश के लोकतांत्रिक इतिहास में सत्ता पर कब्जे के खेल में ऐसे ‘तू डाल-डाल तो मैं पात-पात’ और पालाबदलों का इतिहास बहुत पुराना है और उसमें ऐसी कई कड़ियां हैं, जिनके आगे कर्नाटक के राजनीतिक नाटकों के सारे अंक पानी भरते नजर आयें। प्रसंगवश, हरियाणा के जनता पार्टी के मुख्यमंत्री भजनलाल ने 22 जून, 1980 को अपनी समूची सरकार का दलबदल कराकर उसे कांग्रेस में शामिल करा डाला था, क्योंकि उन्हें अंदेशा था कि अन्यथा 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी के हाथों हुई हार का करारा बदला लेकर फिर प्रधानमंत्री बनी इंदिरा गांधी उनकी सरकार को बर्खास्त करा देंगी।

लोकसभा चुनाव में भी देवगौड़ा के जनता दल ( एस ) के साथ कांग्रेस का गठजोड़ हुआ लेकिन अविश्वास की खाई चौड़ी होती गई। कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खडगे और वीरप्पा मोइली भी नहीं जीत सके। उसके बाद से ही ये अटकलें लगती रहीं कि कुमारस्वामी की सरकार भाजपा गिरवा देगी। लेकिन ऐसा लगता है पार्टी का आलाकमान जल्दबाजी के मूड में नहीं है और इसीलिये उसने छापामार शैली अपनाते हुए कांग्रेस विधायकों से इस्तीफा दिलवाने का दांव चला जिसके तहत बीते सप्ताह अनेक विधायक त्यागपत्र देकर मुम्बई जा बैठे। भाजपा को रोकने के लिए कुमार स्वामी एण्ड पार्टी ने बचाव कार्य शुरू कर दिया है।

एचडी देवगौड़ा ने कांग्रेस नेता खडगे को मुख्यमंत्री बनाने का सुझाव देकर कांग्रेस को खुश करने का पांसा फेंका लेकिन सही बात ये है कि कर्नाटक जबरदस्त राजनीतिक संकट से गुजर रहा है और प्रदेश सरकार एक तरह से आक्सीजन पर टिकी है। कांग्रेस और जनता दल ( एस ) इसके लिए भाजपा को दोषी ठहरा रहे हैं वहीं भाजपा का कहना है कि कांग्रेस नेता सिद्धारमैया इस अस्थिरता के लिए जिम्मेदार हैं और ब्लैकमेल करते हुए खुद मुख्यमंत्री बनने का प्रपंच रच रहे हैं। देवगौड़ा द्वारा खड़गे का नाम आगे बढ़ाने के पीछे भी पूर्व मुख्यमंत्री को रोकने का प्रयास लगता है। लेकिन इस रस्साखींच में कांग्रेस का सबसे बड़ा नुकसान ये हुआ कि उसने जनता दल ( एस ) को फिर से खड़ा कर दिया। देवगौड़ा चूंकि एक जाति विशेष के बड़े नेता हैं इसलिए कुमारस्वामी के हटने से उस जाति के बीच कांग्रेस की स्थिति खलनायक की बन जायेगी।

कर्नाटक में विधायकों की कुल संख्या 224 है, बहुमत साबित करने के लिए 113 विधायक चाहिए। लेकिन 13 विधायकों के इस्तीफे के बाद कुल विधायकों की संख्या 211 ही रह जाती है। ऐसी स्थिति में बहुमत के लिए जरूरी आंकड़ा घटकर 106 पर आ जाता है। कर्नाटक में बीजेपी के पास 105 विधायक हैं, एक निर्दलीय को इसमें जोड़ दें बीजेपी आसानी से बहुमत साबित कर सकती है। वहीं अगर गठबंधन की बात करें तो कांग्रेस के पास 79 विधायक थे जिनमें से 10 इस्तीफा दे चुके हैं। ऐसे में कांग्रेस के पास स्पीकर को मिला कर 69 विधायक बचते हैं. वहीं जेडीएस के पास 37 विधायक थे जिनमें तीन के इस्तीफे के बाद अब संख्या 34 ही बची है। इन दोनों के विधायक मिलाकर 103 होते हैं। इसमें एक बीएसपी का विधायक और एक केपीजेपी के विधायक को भी जोड़ दें तो नंबर सिर्फ 105 तक ही पहुंच पा रहा है। यानी लंबे गुणा भाग के बाद भी कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन बहुमत तक नहीं पहुंच पा रहा है।

आज कांग्रेस हाईकमान जिस तरह से असहाय बना बैठा है वह भी चौंकाने वाला है। ऐसा लगता है मानो सिद्धारमैया खेलेंगे नहीं तो खेल बिगाड़ेंगे की नीति पर चल रहे हैं। दूसरी तरफ देवगौड़ा पिता-पुत्र सोच रहे हैं कि सत्ता का जितना सुख लूटा जा सके लूट लिया जाये क्योंकि अगले चुनाव में उनकी पार्टी अपनी सफलता शायद ही दोहरा सकेगी। कुल मिलाकर आज की स्थिति में गठबंधन सरकार भले ही ले देकर बच जाये और कुमारस्वामी की जगह कोई और समझौता मुख्यमंत्री बन जाए तब भी उसका स्थायित्व सदैव खतरे में रहेगा।

दूसरी तरफ भाजपा को चाहिए कि वह बजाय जोड़तोड़ की सरकार बनाने के नए चुनाव का विकल्प चुने जिसमें उसकी विजय सुनिश्चित होगी वरना वह भी दलबदलुओं की मांगें पूरी करते-करते अपनी छवि खराब कर बैठेगी। और वैसे भी येदियुरप्पा राजनीतिक दृष्टि से कितने भी ताकतवर हों लेकिन उन्हें ईमानदार नेता कहना गलत होगा। कर्नाटक में गठबंधन की सरकार थोड़े बहुत फेरबदल के बाद कायम रहेगी या फिर बीजेपी सत्ता संभालेंगी इसका पटाक्षेप चंद दिनों में हो जाएगा। लेकिन इस तरह की स्थितियां प्रदेश व देश की राजनीति और लोकतंत्र के लिये ठीक नहीं हैं। राजनीतिक दलों को इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए।

-राजेश माहेश्वरी