देखा है आलम हमने जिंदगीयों के बिखरने का,
पर फिर भी नाम नहीं इंसान के सुधरने का।
कभी लड़ता था बाहर जाकर,
आज लड़ता है घर रहकर।
भरी रहती थी जो गलियां इंसानों की रौनक से
उन्हीं गलियों में बैठा है ‘जानवर’ आंखों में उदासी से।
गुम थी चहचहाट जहां पक्षियों की,
ढूंढ रहे हैं आवाज वहां इंसानों की।
हर पत्ता आज बोल रहा है,
क्यों है चुप हर इंसान, यह सोच रहा है!
खुश है आसमान इस धरती को साफ देखकर,
पर खामोश है गुमसुम सा हुआ इंसान को देखकर।
कल जो रसता कभी रुकता नहीं था,
आज उस पर कोई चलता नहीं है।
रो रही है ‘धरती मां’ इन लाशों के
ढेर देखकर,
पर फिर भी खामोश है इंसान सबका
दर्द देखकर।
बस कर ऐ इंसान, यह तेरी-मेरी लड़ाई,
अब तो थाम ले इन धर्मों की लड़ाई।
खुदा की दी इस धरती पर इंसान अब
तो रहमत कर,
अपनी इस सोच और हिंसा से इन्हें और
घायल न कर।
-कंचन चौधरी