हनुमान का उत्तर
जब सीता को लाने राघव दल समुद्र तट पहुँचा तब सबके सामने एक ही प्रश्न उठा कि महासिन्धु को कै से पार करें? अंतत: पुल बाँधने का विचार बना। नल-नील समुद्र पर सेतु बनाने में जुट गए। वानर और भालुओं क सेना चटटानें और वृक्ष ला-ला कर उन्हें दे रहे थे। राम ने भी एक पत्थर फें का। पत्थर तो डूबना ही था। पत्थर को डूबते देख राम ने हनुमान को संकेतपूर्वक अपने पास बुलाया और उनसे विस्मय से पूछा-‘‘पवनपुत्र! लोग क हा करते है कि मैं जिसका हाथ पकड़ता हूँ वह तर जाता है। फिर आखिर यह पत्थर क्यों डुबा?’’ हनुमान ने नम्रता से कहा,‘‘प्रभु!ं आप जिसका हाथ पकड़ लेते हैं, वह तर जाता है। इसमें संदेह नहीं। लेकिन आप जिसे छोड़ देते है, वह तो डूबेगा ही, इस पत्थर कि तरह। इसमें संदेह जैसी क्या बात है।
भगवान और इन्द्र
एक बार देवताओं के राजा इन्द्र को बड़ा अहंकार हो गया। उन्होंने विश्वकर्मा को अपने लिए एक विशाल महल बनाने कि आज्ञा दी। क ई वर्षों तक महल का काम चलता रहा। इसी बीच इन्द्र के अहंकार को जानकर विष्णु एक बालक का रूप धारण क रके उस स्थान पर पहुँचे जहाँ महल तैयार हो रहा था। इन्द्र भी वहाँ थे। विष्णु ने बालक के रूप में महल को आश्चर्य से देखते हुए पूछा- इस महल को कितने विश्वकर्मा बना रहे है? इन्द्र ने हँसकर कहा- तुम कै सी बात कर रहे हो बालक। क्या विश्वकर्मा भी क ई होते हैं? बालक के रूप मे विष्णु बोले- मैंने तो सुना है यह संसार बहुत बड़ा है, इसमें कई ब्रह्मांड भरे पड़े है।
अभी उनकी बात चल रही थी कि वयोवृद्ध महात्मा आए। उन्होनें कहा मेरा- नाम लोमश है। एक इन्द्र के समाप्त होने पर मेरे शरीर का एक रोयां गिर जाता है। पता नहीं कितने इन्द्र और ब्रह्मा मर गए और कितने मरेंगे। मुझे भी मरना है इसलिए मैंने अपनी गृहस्थी नहीं बसाई। मेरे पास अपनी रहने को एक झोपड़ी नहीं है। जब इन्द्र ने सुना कि इतनी लम्बी आयु वाले व्यक्ति ने अपने रहने की चिंता नहीं है तो उन्हें अपने अहंकार का पता चला। अपनी भूल पर पछताते हुए उन्होंने विश्वकर्मा को महल निर्माण के काम से तुरन्त मुक्त कर दिया।
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