पिछले एक माह से युद्ध की आग में झुलस रहे आमेर्निया और अजरबैजान के बीच शांति समझौते के प्रयास बार-बार असफल हो रहे हैं। पिछले एक पखवाड़े में दोनों देशों के बीच दो बार युद्ध विराम का समझौता हुआ, लेकिन दोनों ही बार आमेर्निया और अजरबैजान युद्ध विराम की दिशा में आगे बढ़ते उससे पहले ही हिसंक संघर्ष व रक्तपात का दौर फिर शुरू हो जाता है।
रूस के प्रयत्नों के चलते दोनों देश दो बार समझौते की टेबल तक आए, लेकिन समझौते के परिणाम सामने आते उससे पहले ही दोनों पक्ष एक-दूसरे पर समझौता तोड़ने का आरोप लगाते हुए जंग के मैदान में आ डटे। सवाल यह है कि दोनों देशोें के बीच शांति स्थापना के प्रयास सफल क्यों नहीं हो पा रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि रूस के प्रयासों में निष्पक्षता की कमी हो। कहा तो यह भी जा रहा है कि रूस जान-बूझकर समझौते में ऐसे पेच रख छोड़ता है, जिसके चलते समझौते की उम्र ज्यादा लंबी नहीं हो पाती है। अगर वास्तव में ऐसा है, तो आमेर्निया और अजरबैजान क्षणिक समझौते के लिए क्योंकर राजी हो जाते हैं।
संयुक्त राष्ट्र सहित बडे़ देशों की रहस्मयी चुप्पी पर भी सवाल उठ रहे हैं। पिछले एक महीने से दोनों देश एक दूसरे के नागरिक इलाकों को निशाना बना रहे हैं, और दुनियाभर में मानवाधिकारों को लेकर हाय तौबा मचाने वाला अमेरिका मूकदर्शक बना हुआ है। कमोबेश यही स्थिति यूएन की है। यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि आमेर्निया और अजरबैजान के बीच शांति स्थापना का सारा दारोमदार अकेले रूस पर ही डाल दिया गया है । रूस के अलावा तुर्की, ईरान, फ्रांस, इजरायल और यूरोपियन यूनियन जिनके हित भी इस क्षेत्र से जुड़े हैं, शांति स्थापना के लिए आगे क्यों नहीं आ रहे है। कहीं ऐसा तो नहीं कि क्षेत्रीय शक्तियों के हित दोनों देशों के बीच स्थायी शांति में बाधा उपस्थित कर रहे हो। ईरान और तुर्की की सीमा से लगने वाले आर्मेनिया और अजरब़ैजान पिछले एक माह से हिसंक संघर्ष की लपटों में झुलस रहे है। दोनों देश पहाड़ी क्षेत्र नागोर्नो-काराबाख को लेकर आमने-सामने हैं। अजरब़ैजान इस पर अपना दावा कर रहा हैं, जबकि 1994 में युद्ध विराम के बाद से यह इलाका आर्मीनिया के कब्जे में है। रणनीतिक दृष्टि से अहम 4400 वर्ग किमी वाले इस इलाके को लेकर साल 2016 में भी दोनों के बीच हिंसक संघर्ष हो चुका है।
साल 1920 में जब सोवियत संघ अस्तित्व में आया तो अजरबैजान और आमेर्निया भी उसमें शामिल हो गए। दरअसल, अजरबैजान और आमेर्निया के बीच दुश्मनी के बीज उस वक्त ही पड़ गए थे जब 95 प्रतिशत से अधिक आबादी वाले आर्मीनियाई इलाके को सोवियत अधिकारियों ने अजरबैजान को सौंप दिया था। इसके बाद 1924 में सोवियत संघ ने अजरबैजान के भीतर नागोर्नो-काराबाख क्षेत्र को स्वायत क्षेत्र के रूप में मान्यता प्रदान कर दी। दूसरी ओर नागोर्नो-काराबाख के लोग दशकों से इस क्षेत्र को आमेर्निया में मिलाये जाने की मांग कर रहे हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद असल विवाद उस वक्त शुरू हुआ जब नागोर्नो-काराबाख की विधानसभा ने दिसंबर 1991 में अजरबैजान गणराज्य से अलग एक स्वतंत्र राज्य के निर्माण पर जनमत संग्रह करवाया । जनमत संग्रह में अधिकाश लोगों ने आजादी के पक्ष में मतदान किया। जनमत संग्रह के बाद यहां अलगाववादी आंदोलन शुरू हो गया जिसे अजरब़ैजान ने बल पूर्वक दबाने की कोशिश की।
लेकिन आमेर्निया के समर्थन के चलते आंदोलन जातीय संघर्ष में बदल गया । मई 1994 में रूस की मध्यस्थता में दोनों पक्षों ने युद्धविराम की घोषणा की। युद्धविराम से पहले नागोर्नो-काराबाख पर आर्मीनियाई सेना का कब्जा हो गया। युद्ध विराम के दौरान हुए समझौते के बाद नागोर्नो-काराबाख अजरब़ैजान का हिस्सा तो जरूर बन गया लेकिन अलगावादियों के नियंत्रण से मुक्त नहीं हो पाया। समझौते के तहत आमेर्निया और अजरब़ैजान की सीमा को निर्धारित करने के लिए नागोर्नो-काराबाख लाइन ऑफ़ कॉन्टैक्ट बन गया। कहने को तो उस वक्त आमेर्निया और अजरब़ैजान युद्ध विराम के लिए राजी हो गए थे । लेकिन दोनों देशों को समझौते के लिए राजी करने वाला रूस शुरू से ही आमेर्निया का समर्थन कर रहा था। संघर्ष के दौरान भी उसने आमेर्निया को हथियार तथा सैन्य मदद दी थी। इस लिए रूस की मध्यस्थता में होने वाले इस समझौते को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा था।
हालत आज भी वही है। कहने को तो रूस के आमेर्निया और अजरबैजान दोनों के साथ बेहतर रिश्ते है। लेकिन जब अजरबैजान और आमेर्निया का सवाल आता है तो रूस हमेशा आमेर्निया के साथ खड़े नजर आता हैं। आमेर्निया में रूस का एक सैन्य ठिकाना भी है, और दोनों देश सैन्य गठबंधन कलेक्टिव सिक्योरिटी टीटी आॅगेर्नाइजेशन के सदस्य हैं। संधि के प्रावधानों के चलते दोनों देश संकट के समय एक-दूसरे के साथ खड़े रहते हैं।
दूसरी ओर तुर्की अजरबैजान का समर्थन कर रहा है। अजरबैजान में तुर्क लोगों की आबादी ज्यादा है। वह लगातार अजरबैजान को अपना दोस्त बताते हुए आमेर्निया के खिलाफ जहर उगल रहा है। साल 1991 जब अजरबैजान सोवियत यूनीयन से अलग होकर एक स्वतंत्र देश के रूप में अस्तित्व में आया तो तुर्की ने सबसे पहले उसे मान्यता दी। कुल मिलाकर तुर्की और अजरब़ैजान के रिश्ते दो देश, एक राष्ट्र की तरह है। आमेर्निया के साथ तुर्की के कोई अधिकारिक संबंध नहीं हैं। 1993 में जब आमेर्निया और अजरबैजान के बीच सीमा विवाद बढ़ा तो अजरबैजान का समर्थन करते हुए तुर्की ने आमेर्निया के साथ सटी अपनी सीमा बंद कर दी थी। ताजा विवाद में तुर्की एक बार फिर अपना वही पुराना मित्र धर्म निभा रहा है।
आमेर्निया और अजरबैजान के बीच चल रहे क्षेत्रिय संघर्ष के कारण न केवल नागोर्नो-काराबाख क्षेत्र का आर्थिक और सामाजिक विकास प्रभावित हुआ है, बल्कि इस संघर्ष में तुर्की, रूस और ईरान के कूदने की संभावना ने चिंता बढ़ा दी है। चिंता की एक बड़ी वजह इस इलाके से गुजरने वाली गैस और कच्चे तेल की पाइप लाइन हैं , जो दक्षिण काकेशस के पास से होते हुए तुर्की, यूरोप और अन्य देशों तक पहुंचती है। संघर्ष अगर बड़ी लड़ाई में बदलता है, तो इस क्षेत्र से तेल और गैस निर्यात के बाधित होने की संभावना बढ़ जायगी। अजरबैजान प्रतिदिन लगभग 800,000 बैरल तेल का उत्पादन करता है। इस पाइप लाइन के कारण ही तेल के मामले में यूरोपीय संघ की रूस पर निर्भरता कम हुई है। पूरे मामले का सबसे चिंताजनक पहलू यूएन और महाशक्तियों की चुप्पी है।
करीब एक माह से जारी इस हिसंक संघर्ष में जन और धन का भारी नुक्सान हो रहा है। दोनों देश एक दूसरे के रिहायशी इलाकों को निशाना बनाये जाने का दावा कर रहे हैं। यूएन इस महीने अपनी स्थापना के 75 वर्ष पूरे कर चुका है। इसके बावजूद संस्था की ओर से दोनों देशों के बीच शांति स्थापना के प्रयास उस स्तर पर नहीं किए जा रहे हैं, जो किए जाने थे। अगर समय रहते दुनिया के बड़े देशों के साथ यूएन आगे नहीं आता है, तो काकशियस राष्ट्रों के बीच ऐतिहासिक मतभेदों के कारण जो संघर्ष शुरू हुआ है, उसे किसी वैश्विक यु़द्ध के स्तर तक पहुंचते देर नहीं लगेगी।
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