गुजरात चुनाव: घोषणा में विलंब से सरकार को फायदा

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राजनीतिक विरोधी या जानी दुश्मन! आज राजनीतिक विरोधियों और जानी दुश्मनों के बीच रेखा धुंधली हो गयी है। विकास के मुद्दे पर भाजपा और कांग्रेस के बीच चल रही तू-तू, मैं-मैं इस तथ्य को बखूबी बखान करती है और यह तू-तू, मैं-मैं ये दोनों दल राजनीकि तृप्टि प्राप्त करने की आशा में कर रहे हैं। किंतु इस जटिल मुद्दे में चुनाव आयोग भी फंस गया है।

आयोग ने परंपरा से हटकर एक विवादास्पद निर्णय लिया और हिमाचल तथा गुजरात चुनावों की घोषणा एक साथ नहंी की जबकि दोनों विधान सभाओं के कार्यकाल को समाप्त होने में केवल दो सप्ताह का अंतर है।

इससे एक प्रश्न उठता है कि क्या कांग्रेस का यह आरोप सही है कि गुजरात के मामले में चुनाव आयोग ने भेदभाव किया है और भगवा संघ का पक्ष ले रहा है। दोनों विधान सभाओं के कार्यकाल लगभग एक साथ समाप्त हो रहे हैं फिर गुजरात चुनावों की घोषणा क्यों नहीं की गयी। और यदि गुजरात में भी मतगणना हिमाचल के साथ साथ की जानी है तो फिर वहां अभी से आदर्श आचार संहिता लागू क्यों नहंी की गयी।

इससे वास्तव में क्या प्राप्त होगा? हिमाचल प्रदेश में मतदान और मतगणना में 39 दिन का अंतर क्यों रखा गया? क्या चुनाव आयोग ने अपनी निष्पक्षता और स्वतंत्रता के साथ समझौता किया है? क्या चुनाव आयोग स्वयं में एक कानून है?

नि:संदेह इससे एक गलत संदेश गया है और एक गलत पूर्वोद्दाहरण स्थापित हुआ है। सामान्यतया निर्वाचन आयोग उन राज्यों में विधान सभा चुनाव एक साथ कराती है जहां पर विधान सभाओं का कार्यकाल छह माह के भीतर समाप्त हो रहा हो और इन राज्यों के लिए चुनावों की घोषणा एक साथ की जाती है।

उदाहरण के लिए इस वर्ष उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा, मणिपुर और उत्तराखंड में एक साथ चुनाव हुए। इन राज्यों में 4 फरवरी से 8 मार्च तक चुनाव हुए और चुनावों की घोषणा एक साथ 4 जनवरी को की गयी। वर्ष 2002-03 में गोधरा दंगों के बाद जब गुजरात विधान सभा को समय पूर्व भंग किया गया था तब चुनावों की घोषणा 28 अक्तूबर 2002 को की गयी थी जबकि हिमाचल के लिए 11 जनवरी 2003 को की गयी थी अन्यथा 1998 से लेकर अब तक गुजरात और हिमाचल विधान सभाओं के चुनावों की घोषणा एक साथ की जाती रही है।

अब कांग्रेस शासित हिमाचल में आदर्श आचार संहिता लागू हो गयी है जबकि भाजपा शासित गुजरात में अभी लागू नहीं हुई है। इससे भाजपा को लाभ मिल सकता है और वह भी तब जब गुजरात में विधान सभा चुनाव 18 दिसंबर से पूर्व संपन्न होना है।

मुख्यमंत्री रूपाणी ने पहले ही राज्य में रोजगार के एक लाख नए अवसर सृजित करने के लिए 16 नए औद्योगिक जोनों की स्थापना और 780 करोड रूपए के विकास कार्यों का उद्घाटन पहले ही कर दिया है। इसीलिए कांग्रेस ने चुनाव आयोग पर आरोप लगाया है कि वह भगवा संघ के दबाव के समक्ष झुक रहा है ताकि प्रधानमंत्री मोदी राज्य में अपनी रैलियों में लोक लुभावने वायदों की घोषणा कर सके।

मुख्य चुनाव आयुक्त ने आयोग के बचाव में कहा है कि गुजरात विधान सभा चुनावों की घोषणा अभी इसलिए नहीं की गयी कि राज्य में लंबे समय तक आदर्श आचार संहिता लागू होती जो सामान्यतया 46 दिन से अधिक नहंी होनी चाहिए किंतु लोग आयोग के इस मत से सहमत नहंी हैं।

2007 और 2012 में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में आदर्श आचार संहिता 83 दिन और इस वर्ष पंजाब और गोवा में 64 दिन तक लागू रही। साथ ही आयोग ने यह भी कहा कि यह विलंब गुजरात के मुख्य सचिव के इस आग्रह पर भी किया गया कि चुनावों की घोषणा से आदर्श आचार संहिता लागू हो जाएगी और इससे राज्य में बाढ राहत और पुनर्वास कार्यों में बाधा पडेगी।

किंतु यह तर्क भी दमदार नहीं है। सच यह है कि पार्टियां आदर्श आचार संहिता की बात करती है किंतु यह चुनाव आयोग और पार्टियों के बीच एक स्वैच्छिक समझौता है। आदर्श आचार संहिता की वैधानिक बाध्यता नहंी है और पार्टियां आए दिन इसका उल्लंघन करती रहती हैं और निर्वाचन आयोग नि:सहाय बना रहता है।

एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार आदर्श आचार संहिता को कानूनी स्वीकृति प्राप्त नहंी है। इसका उद्देश्य स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए एक नैतिक पुलिस के रूप में कार्य करना है। आयोग केवल किसी पार्टी का चुनाव चिह्न जब्त कर सकता है या एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उसकी मान्यता समाप्त कर सकता है। इससे परे आयोग को कोई शक्ति प्राप्त नहंी है। इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करते हुए भी लोक सभा या विधान सभाओं के लिए चुना जाता है।

नि:संदेह वर्तमान राजनीतिक प्रणाली और राजनीतिक मूल्यों में बदलाव के लिए लंबा संघर्ष करना पडेगा। गुजरात में भाजपा और नमो की साख दांव पर लगी है। मुद्दा यह नहीं है कि राज्य में संख्या खेल में कांग्रेस भाजपा को मात देती है या भाजपा कांग्रेस को किंतु जैसा कि पूर्व निर्वाचन आयुक्त कुरैशी ने कहा है ‘‘चुनाव की घोषणा टालने से गंभीर प्रश्न खडे होते हैं।

यदि सरकार लोकप्रिय योजनाओं और वायदों की घोषणा करती है तो इससे आयोग की साख दाव पर लगेगी। आयोग पर आारोप लगेगा कि उसने आदर्श आचार संहिता लागू करने से पहले गुजरात सरकार को कुछ अतिरिक्त दिन दिए हैं। बड़ी कठिन मेहनत से आयोग की प्रतिष्ठा स्थापित की गयी है और यह प्रतिष्ठा धूमिल हो सकती है जो कि हमारे लोकतंत्र के लिए घातक होगा।

राजनेताओं को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि उनकी वैधता चुनाव आयोग द्वारा कराए गए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों से प्राप्त होती है और आयोग की वैधता चुनावों की विश्वसनीयता की गारंटी देते हैंं।’’

कुल मिलाकर लोकतंत्र में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावा कराना एक मूल अधिकार है और इसके लिए भारत के संविधान में अनुच्छेद 324 के अंतर्गत निर्वाचन आयोग को परम शक्तियां दी गयी हैं। इस अनुच्छेद में कहा गया है ‘‘संसद और प्रत्येक राज्य के विधान सभा के चुनावों के लिए मत सूची तैयार करने और निर्वाचन का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण चुनाव आयोग करेगा।’’

नि:संदेह टीएन शेषन, गोपालस्वामी, लिंगदोह और गिल जैसे मुख्य निर्वाचन आयुक्तों ने देश को यह बताया कि निर्वाचन आयोग क्या कर सकता है। शेषन द्वारा आदर्श आचार संहिता के कडाई से पालन करवाने से नेता और सरकारें आयोग से डरने लगी थी। इससे निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित हुआ।

गोपालस्वामी ने इस प्रणाली को और सुचारू बनाया और लिंगदोह ने यहां तक सुनिश्चित कराया कि जम्मू कश्मीर में भी चुनाव ईमानदारी से हो जहां पर लंबे समय से चुनावों में हेराफेरी हो रही थी।

इन सब लोगों ने लोकतंत्र को मजबूत किया। साथ ही भावी चुनावों की दिशा भी तय की। निर्वाचन आयोग को भी सतर्क रहना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई पार्टी या उम्मीदवार उस पर पक्षपात करने का आरोप न लगाए। साथ ही चुनावों में हेराफेरी और अन्य अनियमितताओं की शिकायतें न आए और आदर्श आचार संहिता का कडाई से पालन हो। आयोग द्वारा आकर्षक विज्ञापन देने से उत्तरोत्तर चुनावों में मतदान प्रतिशत बढा है।

अब सबकी निगाहें नमो के गृह राज्य गुजरात पर लगी हैं कि वहां चुनाव कौन जीतता है। किंतु हमारी पार्टियों को यह समझना होगा कि यदि हमारी संवैधानिक संस्थाएं दृढता से कार्य नहीं करती तो हमारे देश में अराजकता जैसी स्थिति पैदा हो जाती। कुल मिलाकर यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कौन चुनाव जीतता है या कौन हारता है क्योंकि इस खेल में अंतत: जनता हारती है।

व्यवस्था, सरकार, राजनेता, राजनीति आदि सभी इस तरह से चल रही है कि जनता को बेहतर जीवन से वंचित रखा जाए। भारत के मतदाताओं को इस खिलवाड को रोकना होगा और लोकतंत्र को वास्तव में प्रातिनिधिक बनाना होगा। आपकी क्या राय है?

-लेखक पूनम आई कौशिश

 

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