कर्जमुक्त कंपनियों का बढ़ता मुनाफा

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हाल ही में नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) के निफ्टी सूचकांक में शामिल कंपनियों के प्रतिफल का विश्लेषण किया गया, जिससे पता चला कि वैसी कंपनियां जो आंतरिक स्रोत से पूंजी जुटा कर कारोबार कर रही हैं, के प्रदर्शन में निरंतर सुधार आ रहा है। यह निष्कर्ष 911 कंपनियों के अंकेक्षित तुलना पत्र के विश्लेषण के आधार पर निकाला गया। इस आंकलन में बैंक एवं गैर-बैंक ऋणदाता कंपनियों को शामिल नहीं किया गया है।

इस पड़ताल में औसत आंकड़ों को सूचीबद्ध होल्डिंग कंपनियों की सूचीबद्ध सहायक कंपनियों के साथ समायोजित किया गया है, ताकि दोहरी गणना से बचा जा सके। विश्लेषण के लिये कंपनियों की नकदी आवक, कर्ज के स्तर और ऋण के बजाय आंतरिक कोष से वित्त पोषित संपत्तियों के अनुपात को आधार बनाया गया। विश्लेषण से यह पता चला कि जो कंपनियां कर्जमुक्त हैं, वे बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं।

इस आकलन में वर्ष 2013 से वर्ष 2018 तक के प्रतिफल को शामिल किया गया। कंपनियाँ, जो खुद के संसाधनों पर निर्भर रही हैं, ने आलोच्य अवधि में 30 प्रतिशत से अधिक का प्रतिफल दिया है। इन कंपनियों का प्रदर्शन अप्रैल, 2018 के बाद भी बेहतर रहा है, जबकि भारतीय रिजर्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष में 2 बार नीतिगत दरों में इजाफा किया है। जून और अगस्त में बढ़ोतरी के जरिये कुल 50 आधार अंकों की बढ़ोतरी की गई है। ब्याज दरों में बढ़ोतरी के कारण कर्ज मिलने की शर्त कड़ी हो गई है।

कर्ज के महंगे होने से कर्ज में चूक करने वाली ऋणदाता कंपनियों की संख्या में इजाफा हुआ है। आईएलऐंडएफएस समूह के डूबने से भी स्थानीय बाजार से पूँजी जुटाना में मुश्किलें आ रही है। बाजार में अनिश्चितता का माहौल है। बीते महीनों से वैश्विक बाजार से भी पूँजी इकठ्ठा करना महंगा हुआ है।
बिना कर्ज वाली कंपनियों का प्रदर्शन इसलिये बेहतर है, क्योंकि उनकी कोई देनदारी नहीं है। कम कर्ज होना या कर्ज का नहीं होना हमेशा फायदेमंद होता है। ऐसी स्थिति बेहतर प्रदर्शन में मददगार होती है। कर्ज नहीं होने से शेयर बाजार से पूँजी जुटाने की जरूरत नहीं होती है।

शेयर बाजार से पूँजी नहीं जुटाने से शेयरधारकों की इक्विटी कम नहीं होगी, प्रोमोटर का कैपिटल अक्षुण्ण बना रहेगा। आम तौर पर अच्छे कारोबारी मॉडल और शानदार वृद्धि करने वाली कंपनियों को शेयर बाजार से पूँजी जुटाने की जरूरत नहीं होती है, क्योंकि उनके द्वारा अच्छे प्रदर्शन करने के आसार होते हैं। फिच रेटिंग्स और उसकी भारतीय इकाई इंडिया रेटिंग्स ऐंड रिसर्च के 28 सितंबर के प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार अमेरिकी केंद्रीय बैंक ने ब्याज दरों में हाल में बढ़़ोतरी की है और वह इस प्रक्रिया को आगे भी जारी रखेगा की प्रबल संभावना जताई जा रही है।

माना जा रहा है कि अमेरिकी केंद्रीय बैंक की इस नीति की वजह से दुनिया भर में पूँजी की उपलब्धता कम होगी। एजेंसी के मुताबिक घरेलू स्तर पर पूँजी की उपलब्धता में और भी कमी आने की संभावना है। फिलहाल, भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले रिकॉर्ड निचले स्तर पर आ गया है। कमजोर रुपये से कंपिनयों के लिए विदेश से कर्ज लेना महंगा हो गया है। वर्तमान में वैश्विक स्तर पर अनिश्चितता की स्थिति है एवं घरेलू स्तर पर ब्याज दर ऊंचे स्तर पर है। बदले परिवेश में भारतीय कंपनियाँ अपने बैलेंस शीट को ऋणमुक्त बनाने की कोशिश कर रही हैं।

कंपनियाँ राजस्व वृद्धि में सुधार के बावजूद वृद्धि पर जोर नहीं दे रही हैं। मन:स्थिति में इस बदलाव से वित्त वर्ष 2018 में भारतीय कंपनियों का शुद्ध कर्ज-इक्विटी अनुपात सुधरा है और नई परियोजनाओं में निवेश 10 साल के सबसे निचले स्तर पर आ गया है। पिछले साल कंपनियों का संयुक्त रूप से कुल ऋण सालाना आधार पर 3.3 प्रतिशत अधिक था, जो पिछले 10 सालों में सबसे धीमी वृद्धि है, जबकि गत वर्ष इन कंपनियों का संयुक्त राजस्व सालाना आधार पर 10.5 प्रतिशत अधिक था और उनका शुद्ध लाभ 3.4 प्रतिशत बढ़ा था। इधर, वित्त वर्ष 2018 में संयुक्त रूप से कंपनियों की स्थायी संपत्तियों या संयंत्रों एवं उपकरणों में निवेश 3 प्रतिशत बढ़ा, जो पिछले 10 सालों में सबसे कम वृद्धि है।

विनिर्माण और बुनियादी ढांचा क्षेत्र में नये निवेश घटने की रफ्तार और अधिक है। पिछले वित्त वर्ष में तेल एवं गैस, सूचना प्रौद्योगिकी सेवायेँ एवं फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स कंपनियों को छोड़कर अन्य कंपनियों की संयुक्त रूप से स्थायी संपत्तियां 2.8 प्रतिशत बढ़ीं, जो पिछले 10 सालों में सबसे सुस्त वृद्धि है। वित्त वर्ष 2018 में कंपनियों, जिसमें ऊर्जा शामिल नहीं है का शुद्ध कर्ज उनके शुद्ध पूँजी या शेयरधारक इक्विटी के अनुपात में सुधरकर औसतन 60 प्रतिशत पर आ गया। यह वित्त वर्ष 2016 में 68 प्रतिशत पर एक दशक के सर्वोच्च स्तर पर था।

इस अवधि में तेल एवं गैस, आईटी सेवाएं और एफएमसीजी को छोड़कर अन्य कंपनियों का कर्ज अनुपात सुधरकर 80 प्रतिशत पर आ गया था, जो वित्त वर्ष 2016 में 10 साल के सर्वोच्च स्तर 87 प्रतिशत पर था। इस तरह के संकेतों से पता चलता है कि कंपनियों की बैलेंस शीट में कर्ज का बोझ घटा है, जो बैंकरों और कर्ज में डूबी कंपनियों के शेयर बाजार मूल्यांकन के लिए सकारात्मक है।इक्नॉमिक्स रिसर्च ऐंड एडवाइजरी सर्विसेज के संस्थापक और एमडी जी चोक्कालिंगम के अनुसार इक्विटी के अनुपात में कर्ज में गिरावट उपभोक्ता क्षेत्रों में ज्यादा मुनाफे या ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता के तहत कंपनी ऋण के पुनर्गठन की वजह से आई है। इससे बैंकों को इन कंपनियों में अपने ऋण का बड़ा हिस्सा छोड़ना पड़ा है। आईबीसी के तहत कंपनियों का कर्ज बैंकों का घाटा बन जाता है, जिससे कंपनियों के कर्ज में कमी दिखती है।

इस साल मार्च के अंत में भारतीय कंपनियों का कुल कर्ज 26.9 लाख करोड़ रुपये था, जो एक साल पहले के स्तर 25.7 लाख करोड़ रुपये से अधिक है। वित्त वर्ष 2018 की अंतिम तिमाही में कंपनियों के पास नकदी एवं इसके समान संपत्ति 8.66 लाख करोड़ रुपये थी, जो एक साल पहले के स्तर 8.73 लाख करोड़ रुपये से कम है। हालाँकि, चोक्कालिंगम के तर्क को सही नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि यह विश्लेषण अनियमित एवं नमूना आधार पर किया गया है, जिसमें कंपनियाँ बैंक की चूककर्ता हैं या नहीं का खुलासा नहीं किया गया है।

इसलिये, किसी भी तरह से ऐसे निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता है। कंपनियों के बैलेंस शीट से कर्ज के भार कम करने के दौरान उन्हें मुश्किलों का भी सामना करना पड़ रहा है। ज्यादातर कंपनियों ने पिछले वित्त वर्ष में अपने ऋण अनुपात में सुधार दर्ज किया है, लेकिन इस दौरान धातु एवं खनन, ऊर्जा एवं दूरसंचार क्षेत्रों में इक्विटी अनुपात में शुद्ध कर्ज की स्थिति बिगड़ी है। इन तीन क्षेत्रों का वित्त वर्ष 2018 में भारतीय कंपनियों के कुल बकाया ऋण में औसतन 43 प्रतिशत हिस्सा रहा था।

ऐसे माहौल में बैंकों को अपने कर्ज को वसूलने में मुश्किल हो रही है। बिजली कंपनियों का कुल कंपनी ऋणों में करीब 20 प्रतिशत हिस्सा है, लेकिन इस क्षेत्र का कुल कंपनी लाभ में हिस्सा महज 5.9 प्रतिशत है। सबसे ज्यादा कर्ज वाले क्षेत्र बिजली, धातु व खनन, निर्माण, बुनियादी ढांचा और दूरसंचार हैं। इनका कुल उधारी में करीब 53 प्रतिशत हिस्सा है, लेकिन वित्त वर्ष 2018 में कुल लाभ में इनका हिस्सा महज 12 प्रतिशत था। कंपनियों की खराब वित्तीय हालात के लिये सरकार को भी कुछ हद तक जिम्मेदार माना जा सकता है, जो सरकारी बैंकों का पुनर्पूंजीकरण नहीं कर पा रही है। मौजूदा समय में सरकारी बैंक ही कंपनियों को ऋण देने वाले मुख्य ऋणदाता हैं।

सतीश सिंह

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