हमारे नेताओं को इस बात को देखना होगा कि किस तरह विश्व के नेता अधिक सहिष्ण्ुा हैं। राजनीतिक स्वतंत्रता के दो महत्वपूर्ण उदाहरण अमरीकी राष्ट्रपति हैं जिनका विश्व स्तर पर निर्ममता से उपहास किया गया और दूसरा उदाहरण इटली के पूर्व राष्ट्रपति प्लेब्वाय पीएम बर्लुसकोनी हैं। ब्रिटेन और फ्रांस में लोग अपने शासकों के प्रति अधिक स्वतंत्रता का उपयोग करते हैं। लोकतंत्र केवल एक शासन प्रणाली नहीं है। यह एक ऐसा मार्ग है जिसका विकास सभ्य समाज द्वारा एक संगठित समाज के निर्माण के लिए किया गया है जिसमें लोग रहते हैं, एक दूसरे से संवाद करते हैं। और जो स्वतंत्रता, समानता भ्रातृत्व की भावना पर आधारित है।
प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले सप्ताह कहा ‘‘व्यक्तिगत विचारधारा को राष्ट्रीय हित से अधिक महत्व देना गलत है।’’ उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्रीय हित व्यक्तिगत विचारधारा से अधिक महत्वपूर्ण है। नि:संदेह लोकतंत्र सिद्धांतों की प्रतिर्स्पधा के रूप में हितों का टकरव है। यह पुरानी कहावत हमारे नेताओं पर पूरी तरह लागू होती है जब राष्ट्र विरोधी भाषणों पर उनकी प्रतिक्रिया देखने को मिलती है। उनकी ये प्रतिक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि वे किस पक्ष में हैं क्योंकि आज समाज उदार और धर्मान्ध दो वर्गाे में बंटा हुआ है।
हैरानी इस बात पर भी होती है कि हम इस बारे में इतने संवेदनशील क्यों हैं। पिछले दो माह में भारतीय दंड संंिहता की धारा 124 क अर्थात देशद्रोह की धारा के अंतर्गत छह मामले दर्ज किए गए हैं। केरल के एक पत्रकार पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया और हाथरस में दलित किशोरी की सामूहिक हत्या की खबर कवर करने के लिए वहां जाते हुए उसे इस काल्पनिक आधार पर गिरफ्तार किया गया कि वह योगी सरकार को बदनाम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय षडयंत्र का हिस्सा है। यही स्थिति गुजरात की है जहां पर सीआईडीे ने एक पत्रकार को इसलिए गिरफ्तार किया कि उसने एक लेख में संकेत दिया कि मुख्यमंत्री रूपाणी को राज्य में महामारी का मुकाबला करने में विफल रहने के कारण बदला जा सकता है। उसे बाद में बिना शर्त क्षमा याचना करने पर छोड़ दिया गया।
झारखंड सरकार ने प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और राज्य सभा सांसद दीपक प्रकाश के विरुद्ध देशद्रोह का मामला दर्ज किया। उन पर आरोप लगाया गया कि वे झारखंड मुक्ति मोर्चा कांग्रेस सरकार को अस्थिर करने का प्रयास कर रहे हैं और इसलिए उन्होंने ट्वीट किया कि वे सरकार बनाने जा रहे हैं। दिल्ली पुलिस ने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूूर्व मुस्लिम छात्र उमर खालिद और अन्य वामपंथी कार्यकतार्ओं को इस वर्ष फरवरी में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भारत यात्रा में विघ्न डालने के लिए दंगे करवाने और भाजपा सरकार को बदनाम करने के लिए षडयंत्र करने के आरोप में गिरफ्तार किया और यह आरोप भी लगाया गया कि उन्होंने दंगों के बारे में किताबों, पंपलेट और व्हाटस ऐप आदि पर बात की।
इससे पूर्व सात वामपंथी और मुस्लिम कार्यकतार्ओं के विरुद्ध देशद्रोह के मामले दर्ज किए गए क्योंकि उन्होंने सीएए, एनआरसी के विरुद्ध नारे लगाए। उन्होंने यह भी नारे लगाए ‘‘पाकिस्तान जिंदाबाद’’, ‘‘हमें बलपूर्वक आजादी लेनी होगी। हम 15 करोड़ हैं लेकिन 100 करोड़ पर भारी हैं। हमें असम को भारत से अलग करना है।’’ साथ ही मोदी के विरुद्ध अपमानजनक पोस्ट लिखे जिसमें उन्होंने कहा कि वे अंगे्रजों के जूते चाट रहे हैं। अरबन नक्सल कार्यकताओं, शोध छात्रों ,कलाकारों के विरुद्ध भी देशद्रोह के मामले दर्ज किए गए और उन पर आरोप लगाया गया कि वे मोदी की हत्या का षडयंत्र कर रहे हैं।
निश्चित रूप से आप कह सकते हैं कि ऐसे भाषण और कार्य उचित नहीं है किंतु इनके कारण देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तारी भी उचित नहीं है। कानून में स्पष्ट कहा गया है कि कोई भी संकेत, शब्द लिखा या बोला गया शब्द जो घृणा पैदा करे, अवमानना करे, सरकार के प्रति विद्रोह को भड़काने का प्रयास करे इस श्रेणी में आते हैं। यह केवल उन मामलों में लागू होता है जहां पर गंभीर अपराध होता है, जहां पर आदमी हथियार उठाता है और शासन की वैधता के लिए खतरा पैदा करता है।
प्रश्न उठता है कि सरकार की आलोचना करना या सरकार की आलोचना से जुड़ा मुद्दा किस तरह राष्ट्र विरोधी या घृणा फैलाने वाला माना जाए। क्या ऐसा कर राष्ट्र की अवधारणा का उपहास नहीं हो रहा है जो लोकतंत्र के मूल्यों पर निर्मित है। क्या हम इतने घबराए हुुए हैं या असहिष्णु हैं कि किसी भी विचार को हम राष्ट्र, संविधान या सरकार के लिए खतरा मानते हैं? क्या हमारे राजनेता सार्वजनिक जीवन में विचारों के टकराव से घबराते हैं? क्या यह किसी व्यक्ति के देश प्रेम की कसौटी होनी चाहिए? क्या केन्द्र या राज्य सरकारें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन कर रही हैं या विरोध को दबा रही हैं?
क्या हम लोगों ने आलोचना को स्वीकार करने की क्षमता खो दी है? क्या हम डरे हुए हैं? क्या यह मात्र संयोग है या घुटने टेक प्रतिक्रियावादी का प्रतीक है जहां पर व्यक्ति रोजगार खोने या दंड के कारण सार्वजनिक वक्तव्य देने के लिए बाध्य हो जाता है। क्या सरकार या नेताओं की आलोचना करने से किसी व्यक्ति को जेल की सलाखों के पीछे रखा जाना चाहिए? क्या राष्ट्र प्रेम और देशभक्ति का सबक सिखाने का सरकार का यही तरीका है? क्या हम रोबोट पैदा करना चाहते हैं जो केवल अपने अपने नेता, चेला, विचारक लाभार्थी की कमांड के अनुसार कार्य करे।
आज जिस तरह से समाज में सहिष्णुता में गिरावट आ रही है वह भयावह है। उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायधीश मदन लोकुर के अनुसार राज्य जनता की राय की प्रतिक्रिया के रूप में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए देशद्रोह का प्रयोग कर रही है। यकायक देशद्रोह के मामलों की संख्या बढ गयी है। इस वर्ष अब तक देशद्रोह के 70 मामले दर्ज किए गए हैं। राज्य द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का एक नया तरीका यह निकाला गया है कि वह आलोचनात्मक राय को फेक न्यूज के रूप में प्रचारित कर रहा है।
130 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले देश में इतने ही विचार भी होंगे और कोई भी व्यक्ति जनता के मूल अधिकार पर अंकुश नहीं लगा सकता है। इसलिए हमें लोगों की आवाज पर अंकुश नहीं लगाना चाहिए। न ही किसी भी व्यक्ति को घृणा फैलाने या राष्ट्र के लिए अहितकर विचार व्यक्त करने का लाइसेंस दिया जाना चाहिए। उन्हें इस बात को महसूस करना चाहिए कि राष्ट्र दिल और दिमाग से और उसके बाद एक भौगोलिक इकाई है।
हमारे नेताओं को इस बात को देखना होगा कि किस तरह विश्व के नेता अधिक सहिष्ण्ुा हैं। राजनीतिक स्वतंत्रता के दो महत्वपूर्ण उदाहरण अमरीकी राष्ट्रपति हैं जिनका विश्व स्तर पर निर्ममता से उपहास किया गया और दूसरा उदाहरण इटली के पूर्व राष्ट्रपति प्लेब्वाय पीएम बर्लुसकोनी हैं। ब्रिटेन और फ्रांस में लोग अपने शासकों के प्रति अधिक स्वतंत्रता का उपयोग करते हैं। लोकतंत्र केवल एक शासन प्रणाली नहीं है। यह एक ऐसा मार्ग है जिसका विकास सभ्य समाज द्वारा एक संगठित समाज के निर्माण के लिए किया गया है जिसमें लोग रहते हैं, एक दूसरे से संवाद करते हैं और जो स्वतंत्रता, समानता भ्रातृत्व की भावना पर आधारित है।
साथ ही हमें घृणा फैलाने वाले या संकीर्ण भाषणों से बचना चाहिए किंतु साथ ही हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि जोर जबरदस्ती करने वाले हजारों मिल जाएंगे किंतु स्वतंत्रता एक अनाथ की तरह है। जैसा कि जार्ज आरवेल ने कहा है यदि स्वतंत्रता का कोई अर्थ है तो इसका अर्थ है कि लोगों को यह बताया जाए कि वे क्या सुनना नहीं चाहते है। यह संदेश स्पष्टत: दिया जाना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति, समूह या संगठन घृणा फैलाने, हिंसा करने की धमकी नहीं दे सकता है और यदि वे ऐसा करते हंै तो वे सुनवाई के लोकतांत्रिक अधिकार से वंचित किए जा सकते हैं। भारत ऐसे नेताआें के बिना भी काम चला सकता है जो राजनीति को विकृत करते हैं और इसके साथ ही लोकतंत्र को बदनाम करते हैं और उपहास का पात्र बनते हंै।
-पूनम आई कौशिश
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