भारत माता को ब्रिटिश शासन सत्ता से मुक्ति के लिए हुए स्वाधीनता संघर्ष के रणांगन में हजारों आबाल वृद्ध, स्त्री, पुरुष, किसान, कामगार, व्यवसायी एवं छात्रों ने अपने प्राणों न्यौछावर किये हंै। अपने सुवासित जीवन-पुष्पों की माला से भारत माता का कंठ सुशोभित किया है तो रुधिर से भाल पर अभिषेक भी। उन्हीं जननायकों में से एक महानायक बनकर उभरा जिन्हें विश्व सुभाष चन्द्र बोस के नाम से जानता है। सुभाष का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक में एक बंगाली परिवार में प्रतिष्ठित वकील जानकी नाथ बोस एवं प्रभावती की 14 संतानों में 9वें संतान के रूप में हुआ था। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूरी कर सुभाष ने 1915 में बीमारी के बावजूद इंटरमीडिएट परीक्षा दी और द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। 1919 में बी.ए. आनर्स प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर कलकत्ता विश्वविद्यालय में दूसरा स्थान प्राप्त किया। छात्र जीवन में ही सुभाष ने विवेकानन्द साहित्य का अध्ययन कर लिया था जिसने उन्हें राष्ट्रीय चेतना से समृद्ध किया और चिंतन-मनन करने की सुदृढ़ जमीन दी। पुत्र को आईसीएस बनाने की पिता की इच्छा का मान रखते हुए सुभाष 1919 में इंगलैण्ड के लिए रवाना हुए और आईसीएस परीक्षा न केवल उत्तीर्ण की बल्कि चैथा स्थान भी हासिल किया। किन्तु हृदय में धधक रही देशप्रेम की ज्वाला के कारण अंग्रेजों की चाकरी को स्वीकार न कर भारत माता की सेवा-साधना का कंटकाकीर्ण पथ अंगीकार किया। फलत: सेवा से त्यागपत्र देकर जून 1921 में भारत वापस आकर कांग्रेस में अपनी भूमिका के सम्बंध में महात्मा गांधी से भेंट की। उनके सुझाव पर सुभाष कोलकता आकर देशबंधु जी के साथ काम करने लगे।
दास ने कोलकता महापालिका का चुनाव लड़ा और जीत अर्जित कर महापौर बने। तब उन्होंने सुभाष को महापालिका का मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनाया। यहां पर सुभाष ने अपनी कार्यशैली और दूरदृष्टि का परिचय देकर काफी नये और महत्वपूर्ण काम किए जिससे उनकी कार्यशैली और राजनीतिक सोच से सभी परिचित हुए और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। साथ ही उनकी गिनती देश के अग्रणी नेताओं में होने लगी। विद्यार्थी जीवन में ही टेरीटोरियल आर्मी में रंगरूट के रूप में प्राप्त सैन्य प्रशिक्षण आगे चलकर आजाद हिन्द फौज के गठन का दृढ़ आधार भी बना। आजादी की लड़ाई में 11 बार जेल जाना पड़ा जिससे आपके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ा। तो स्वास्थ्य लाभ के लिए 1933 से 1936 तक यूरोप में रहना हुआ। उस अवधि में आपने इटली के नेता मुसोलिनी और आयरलैण्ड के नेता डी. बलेरा से भेंट कर सहयोग का वचन लिया। आस्ट्रिया में चिकित्सा प्राप्त करने के दौरान पुस्तक लिखने हेतु टाईपिस्ट एमिली शेंकेल से प्रभावित हो सुभाष ने उनसे विवाह कर लिया और अनीता बोस के रूप में एक पुत्री ने जन्म लिया। दुर्योग ऐसा कि सुभाष अपनी बेटी से जीवन में कभी मिल न सके।
कांग्रेस दल और देश में सुभाष की लोकप्रियता उफान पर थी। 1938 में हरिपुरा में आयोजित कांग्रेस के 51वें अधिवेशन में गांधी जी ने सुभाष को अध्यक्ष मनोनीत किया और सम्मान में 51 बैलों द्वारा इनके रथ को खींचा गया। उस अवसर पर अध्यक्ष के रूप में दिया गया सुभाष का ओजस्वी भाषण दुनिया के प्रमुख भाषणों में शुमार किया जाता है। अध्यक्षीय कार्यकाल में आपने जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में योजना आयोग और विख्यात अभियंता विश्वेश्वरैया के नेतृत्व में विज्ञान परिषद बनाई। कांग्रेस में सुभाष के बढ़ते प्रभाव और कार्यकतार्ओं पर मजबूत होती पकड़ से कांग्रेस के अन्दर ही कुछ नेताओं का प्रभामंडल कमजोर होने लगा। गांधी जी से भी मतभेद हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि 1939 के त्रिपुरा अधिवेशन में अध्यक्ष के मनोनयन की परम्परा के उलट कांग्रेस को चुनाव करवाना पड़ा। देश और कार्यकतार्ओं की पसंद सुभाष थे लेकिन गांधी जी ने अपने प्रत्याशी के रूप में पट्टाभि सीतारमैया को सुभाष के विरुद्ध खड़ा कर जिताने की अपील की। किन्तु सुभाषबाबू ने सीतारमैया को पराजित कर दिया, जिस पर गांधी जी इस टिप्पणी कि सीतारमैया की हार मेरी हार है, से सुभाष बहुत दुखी हुए और उन्होंने अध्यक्ष पद से दस्तीफा दे दिया। देश जानता है कि विदेश प्रवास के दौरान सुूभाष ने ही अपने एक रेडियो भाषण में गांधी जी को सर्वप्रथम राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित किया था। कांग्रेस के अन्दर ही फारवर्ड ब्लॉक बनाकर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने लगे। लेकिन उन्हें कांग्रेस से निकाल दिया गया। अंग्रेजी शासन ने उनको नजरबन्द कर दिया।
जनवरी 1941 में नजरबंदी के दौरान ही ब्रिटिश पुलिस और जासूसों को चकमा देकर एक पठान के रूप में सुभाष निकल भागे और पेशावर, काबुल, मास्कों होते हुए जर्मनी पहुंचे। हिटलर एवं जर्मनी के अन्य नेताओं से भेंट कर आजाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। वहां से आप ने जापान पहुंच कर जनरल तोजो से भेंट की और जापानी संसद को सम्बोधित किया। जापान के सहयोग से रासबिहारी बोस के मार्गदर्शन में आजाद हिन्द फौज का गठन कर सिपाहियों और नागरिकों का आह्वान किया कि तुम मूझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर में टाउन हॉल के सामने आजाद हिन्द फौज के सम्मुख ओजस्वी भाषण देते हुए दिल्ली चलो का नारा दिया था। फौज ने बर्मा (अब म्यान्मार), कोहिमा, इम्फाल के मोर्चे पर अंग्रेजी सेना से मुकाबला कर दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए। अंग्रेजी सरकार सुभाष चन्द्र बोस से इतनी भयभीत थी कि सुभाष और आजाद हिन्द फौज के विरुद्ध दुष्प्रचार करने हेतु एक एंटी इंडिया रेडियो की स्थापना की थी।
हिटलर-सुभाष की भेंट की झूठी खबर प्रसारित कर कहा कि हिटलर ने सुभाष से भेंट और सहयोग करने से इंकार कर जर्मनी छोड़ देने को कहा है। आगे 21 अक्टूबर 1943 को सुभाष ने आजाद हिन्दुस्तान की अंतरिम सरकार बनाई जिसमें राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री का दायित्व स्वयं निर्वहन किया। इस आजाद हिन्द सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, आयरलैण्ड आदि 9 देशों ने मान्यता प्रदान की थी। उस अस्थायी सरकार के गठन के 75 वर्ष पूर्ण होने के सुअवसर पर अक्टूबर 2018 में भारत के प्रधानमंत्री मा0 नरेन्द्र मोदी द्वारा लालकिले पर तिरंगा ध्वज फहराकर उसके महत्व को रेखांकित किया गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद सुभाष आजादी की लड़ाई हेतु आवश्यक संसाधन जुटाने हेतु रूस जाने का निश्चय कर 18 अगस्त 1945 को हवाई जहाज से निकले किन्तु रास्ते में ही वे लापता हो गये। कहा गया कि उनका हवाई जहाज रास्ते में दुर्घटनाग्रस्त हो गया जिसमें सुभष चन्द्र बोस की मृत्यु हो गई। हालांकि ताईवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बताया था कि उस दिन ताईवान के आकाश में कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं। सुभाष जीवित रहे या विमान दुर्घटना का शिकार हुए, यह सत्य तो काल के गर्भ में है पर कोटि- कोटि भारतवंशियों के हृदय में वह सदा सर्वदा जीवित रहेंगे। भारत माता के प्रति उनकी अनन्य भक्ति और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए किया गया अनथक अदम्य प्रयास उन्हें चिरकाल तक अमर रखेगा।
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