कहानी : दादी मां : Grandmother

Grandmother
मेरे कानो में आवाजें आती रहती थीं, क्योंकि मेरी और उनकी दीवार सांझी थी। दादी मां का कद छोटा था, उनके कद की भांति छोटी थी उनकी चारपाई। जिसे धूप में बिछाकर वे सर्दी में धूप सेंका करतीं और अपने पास एक लोटा पानी का भर के रख लेतीं, जब भी उन्हें प्यास लगती, दो घूंट पानी पी लेंती। बाल उनके रूई की भांति सफेद थे और मुंह में एक भी दांत नहीं था। बदन पर झुर्रियां थीं, लेकिन दबदबा उनका अभी भी वैसा ही बरकरार था, जैसा कभी यौवन में रहा होगा।बहू उनकी थी बड़ी तेज-तर्रार, लेकिन फिर भी सास-बहू में कभी भी कहासुनी नहीं होती थी। दादी मां अपनी बहू से कुछ दब के जरूर रहती थीं, लेकिन जब कभी भी उन्हें गुस्सा आ जाता था तो उन्हें जो कहना होता था, कह देती थीं।
बहू पर उनके कहने की क्या प्रतिक्रिया हुई, क्या नहीं, इसकी चिंता उन्होंने कभी नहीं की। आज तो दादी मां कुछ उदास थीं। वैसे तो बहन और भाई का रिश्ता ही कुछ ऐसा होता है कि उस रिश्ते के आगे शेष सभी रिश्ते फीके से लगते हैं, लेकिन उस रिश्ते में अलग-अलग बर्ताव के कारण दादी मां का मन दु:खी था। जो कुछ बेटी ने कहा उसे सोचकर ही दु:खी थीं। वो बेटे को समझाना तो चाहती थी, लेकिन सोचती थी कि शायद उसे मेरी बात बुरी न लग जाए तो भी कुछ दिन वे सोचती रहीं। जो वे कहना चाहती हैं कहें या न कहें, लेकिन फिर उन्होंने सोचा कि बात तो छोटी-सी है, लेकिन इस छोटी-सी बात से कहीं दिलों में अलगाव न पैदा हो जाए।
कई दिन सोचने के पश्चात उन्होंने अपने बेटे वजीरचंद से बात करने का मन बना लिया। आज वजीरचन्द की छुट्टी थी तो वह आकर मां के पास बैठकर उनका हालचाल पूछने लगा। मां ने कहा, ओए वजीरे मैं एक बात कहूं तुझे बुरा तो नहीं लगेगा। नहीं बेजी (वह मां को बेजी कहके बुलाता था) बुरा क्यों लगेगा। कहिए न जो भी कहना है। मां की बात का कोई बुरा मानता है क्या? बेटा एक घर में दो बेटियों के साथ अलग-अलग व्यवहार मत किया कर। मां ने कहा। उसने कहा, ‘मैंने क्या किया है बेजी जो आप इस तरह कह रही हैं।
उन्होंने कहा, ओए वजीरे राखी बांधने तेरी बहन भी आती है और तेरी बेटी भी। मेरी बेटी तेरी बहन है न। हां बेजी! ये भी कोई कहने की बात है। और तेरी बेटी नेके (नेक चन्द) की बहन है। हां बेजी। जब दोनों इस घर की बेटियां हैं। एक बाप की बहन और एक बेटे की, तो फिर इस घर में दोनों को एक समान क्यों नहीं समझा जाता। लेकिन बेजी मैंने किया क्या है। मैं तो बहन और जीजाजी की बड़ी इज्जत करता हूँ। हां! कहने को तो इज्जत ही करते हो, लेकिन क्या उसी भांति जैसे तुम्हारी बेटी आती है तो उसकी इज्जत इस घर में होती है। मैं समझा नहीं बेजी आप क्या कहना चाहती हो। बेटा मैं जानती हूं, तुमने मुझे अपने घर में रखा हुआ है। मेरा खर्च भी तुम पर है।
मैं चाहती तो नहीं थी, लेकिन मेरा बोझ भी तुम्हें झेलना पड़ रहा है। वजीरचन्द अपना सिर मां की गोद में रखके रोने लगा। मां उसके बालों को सहला रही थी। रोते-रोते वजीरचन्द ने कहा, बेजी साफ-साफ कहिए न, मुझसे क्या गलती हो गई है। मुझे शर्मिन्दा न कीजिए। तो सुनो बेटा, उन्होंने कहा, साल में दो ही त्योहार बहनों के होते हैं, एक राखी और दूसरा टिक्का। जब बहनें बिना किसी बुलावे के मायके चली आती हैं। मुझे यह मालूम है कि यदि तेरी बेटी को राखी के एक हजार रुपये मिलते हैं तो तेरी बहन को एक सौ रुपये। इतना अधिक अंतर क्यों बेटा। यदि अनामिका नेके की बहन है तो मनसा भी तेरी बहन है। मनसा के साथ अनामिका की भांति चाहे मत कर, लेकिन कुछ ऐसा भी मत कर कि उसे ये लगे कि मेरा आना इन्हें बोझ लगता है।
क्यों बेजी, मनसा ने कुछ कहा है क्या? नहीं और तो कुछ नहीं कहा। बस यही कहा कि बेजी मेरी तबियत ठीक नहीं रहती। मैं आज के बाद राखी, टिक्का बाई पोस्ट भेज दिया करूंगी। आप कभी-कभी भैया के साथ आ जाना और कुछ दिन मेरे पास भी रह जाया करना। आपका भी मन बहल जाया करेगा। बेटा! मैं इस उम्र में बेटी के घर जाकर, उसके घर का खाऊं, क्या मैं अच्छी लगूंगी।
नहीं बेजी! आप कहीं नहीं जाएंगी। मैं आपके मन की बात समझ गया। आज के बाद आपको शिकायत का अवसर नहीं दूंगा। तो फिर मेरी बात मान के इस बार अपनी रूठी बहन को मना लाना। बेटियां यदि खुश रहें और हंसी-खुशी हमारे घर से अपने घर जाएं तो घर में खुशहाली आती है। उन्होंने बेटे को समझाते हुए कहा। राखी से दो दिन पहले ही वजीरचन्द अपनी बहन और जीजा को मनाकर घर ले आया और विदा करते समय कपड़े, मिठाइयां, रुपये इत्यादि देकर उन्हें खुशी-खुशी विदा किया।
दादी मां के पास तो अड़ोस-पड़ोस के लोग भी अपनी समस्या लेकर अक्सर आ जाया करते थे और वे आनन-फानन उनके झगड़ों का निपटारा करवा देती थीं। सर्दी में आस-पड़ोस की सभी औरतें धूप सेंकने के लिए दादी मां के पास आ जाती थीं। पूरा मेला ही लग जाता। कोई स्वेटर बुनती, कोई सिवैयां बनाती। कोई बातें करती रहती। वहीं बैठे-बैठे मिनटों में किसी न किसी की कोई न कोई समस्या हल हो जाती। काम का काम हो जाता, मनोरंजन का मनोरंजन। सभी औरतें दोपहर को खाना भी वहीं धूप में बैठकर खाती थीं। दादी मां को वे सब अपने परिवार की भांति ही लगती थीं। लेकिन कल और आज में बहुत अन्तर आ गया है। कल दादी मां का स्वर्गवास हो गया। उनकी छोटी-सी पंघूड़ी (चारपाई) आज वहां से हटा दी गई है। आज वहां दरी बिछी है। आते-जाते लोग अफसोस कर रहे हैं।
दस-बारह दिन बाद सब रिश्तेदार अपने-अपने घर चले जाएंगे, तब इस खाली जगह का सूनापन कैसा लगेगा, उसका जितना अहसास अभी से मुझे हो रहा है, उससे कहीं अधिक वजीरे को होगा और पूरे मोहल्ले की उन औरतों को होगा, जो एक परिवार की भांति दादी मां के इर्द-गिर्द मिल-बैठकर सर्दी में धूप सेंका करती थीं।

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