बेरोजगारी देश की बहुत बड़ी समस्या है परंतु जिस तरह केन्द्र व राज्य सरकारें नौकरी के लिए दी जाने वाली परीक्षाओं की फीस वसूलती हैं, उससे तो ऐसा लगता है कि बेरोजगारी सरकारों के लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी बन गई है। दो-चार पदों के लिए हजारों बेरोजगार फार्म भरते हैं और सरकारों के पास करोड़ों रुपए पहुंच जाते हैं। अध्यापक योग्यता टेस्ट के लिए पंजाब सरकार 1000 रुपए वसूलती है। अन्य राज्यों में भी इससे थोड़े अधिक या कम रूपये बतौर फीस लिए जाते हैं। सरकार का खर्च इतना नहीं होता जितना वसूला जाता है। पंजाब कांग्रेस प्रधान सुनील जाखड़ ने तो अकाली-भाजपा सरकार के समय जोर-शोर के साथ मुद्दा उठाया था कि नौकरी न मिलने वाले बेरोजगारों को पैसे वापिस दिए जाएं। परंतु अब उनकी सरकार ही पूरी फीस ले रही है।
दूसरी ओर चुनावों के वक्त राजनीतिक पार्टियां बेरोजगारों को सहायता देने का दम भरती हैं कि अपने-अपने चुनावी घोषणा पत्र में बेरोजगारी भत्ता देने के बड़े-बड़े वायदे करती हैं। फिर सत्ता में आने के बाद उन्हीं बेरोजगारों को परेशान किया जाता है, जिनसे वादे कर वोट बटोरे होते हैं। वास्तव में बेरोजगारों को परीक्षा के लिए मोटी फीस देना सरकार की रोजगार नीतियों की पोल खोलता है। परीक्षार्थी केवल फीस ही नहीं भरते बल्कि अपने जिले से दूर जाने का किराया-भाड़ा भरने के साथ-साथ खाने-पीने का खर्च भी सहन करते हैं। कई बार तो उम्मीदवार भारी फीस के कारण फार्म ही नहीं भर पाते। अगर परीक्षाओं पर होने वाले स्टेशनरी या प्रिंटिंग का सरकारी खर्चा देखा जाये तब यह 20-30 रुपए प्रति परीक्षार्थी बड़ी मुश्किल के साथ आता है। जब परीक्षार्थी लाखों की संख्या में हों तो यह और भी कम हो जाता है।
होना तो यूं चाहिए कि सरकार परीक्षा वाले दिन बेरोजगारों को मुफ्त बस/रेलगाड़ी सेवाएं मुहैया करवाए। पहले ही बेरोजगारी के कारण खाली जेब घूम रहे बेरोजगारों को परेशान करने की बजाय उनको कुछ राहत देने की जरुरत है। अच्छा हो अगर केंन्द्र व राज्य सरकार ना लाभ-ना हानि की तर्ज पर परीक्षा फीस कम से कम ले। उम्मीदवारों की संख्या के हिसाब से परीक्षा फीस के रेट घटाए-बढ़ाए जा सकते हैं और निश्चित फीस भरवाने के बाद उम्मीदवारों से वसूले गए अधिक पैसे उन्हें वापिस भी दिए जा सकते हैं। ऑनलाइन सिस्टम में भी ये चीजें बहुत बड़ी नहीं हैं।
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