कागज की नाव पर सवार कर्नाटक की सरकार

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कर्नाटक के मुख्यमंत्री कुमारस्वामी का हालिया बयान कि, वे कांग्रेस की कृपा से मुख्यमंत्री हैं, कई मायनों में खास है। वहीं इस बयान से कर्नाटक की राजनीतिक उथल-पुथल, सांठ-गांठ और बेमेल गठजोड़ को भली भांति समझा जा सकता है। कुमारस्वामी ने यह बयान देने के बाद सफाई भी पेश की, लेकिन जाने-अनजाने ही सही कुमारस्वामी के दिल की बात जुबां पर आ ही गयी है। ऐसे में अहम सवाल यह है कि कर्नाटक में राजनीतिक नाटक कब तक चलेगा। उससे बड़ा सवाल यह है कि जेडीएस और कांग्रेस का साथ कब तक जारी रहेगा। क्या जेडीएस भविष्य के लिए नये विकल्प खोज रहा है। राजनीतिक विशलेषकों की मानें तो कर्नाटक की गठबंधन की सरकार कागज की नाव पर सवार है, जिसका देर-सबेर डूबना लाजिमी है।

कुमारस्वामी के बयान के बाद राजनीतिक गलियारों में अब सवाल यह है कि इस सरकार में स्थायित्व कब तक। ज्यादा विधायकों के बावजूद एक जूनियर पार्टनर के रूप कांग्रेस कब तक जेडीएस को स्वीकार करेगी। कयास हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव तक और जब तक कांग्रेस अपनी खोई ताकत हासिल नहीं कर लेती। निश्चित रूप से यह मजबूरियों का समझौता है। दस साल से सत्ता से बाहर रही जेडीएस के लिये भी यह अस्तित्व का प्रश्न था। तभी तीखे कटुता वाले चुनाव के बावजूद उसने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चलाने का विकल्प चुना। ऐसे में इसे असहज गठबंधन जरूर कहा जा सकता है। गठबंधन की विसंगतियों की परतें भी खुलती रहेंगी। जैसे पहले कांग्रेस लिंगायत समुदाय से दूसरा उपमुख्यमंत्री मांग रही थी। जाहिरा तौर पर मंत्री पदों को लेकर हितों का टकराव भी सामने आ सकता है।

वास्तव में कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जिस तरह का खंडित जनादेश आया, उसने वर्ष 2019 में होने जा रहे आगामी आम चुनाव के लिहाज से भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस के लिए भी चुनौतियां पेश करते हुए कुछ सबक भी दिए हैं! इसमें कोई शक नहीं कि वर्ष 2014 के आम चुनाव में प्रचंड जनादेश हासिल करने के बाद भाजपा का अब तक का चुनावी सफर इक्का-दुक्का झटकों को छोड़कर शानदार रहा है।

उसे दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनावों में मात जरूर मिली और कुछ जगहों पर उपचुनावों में भी इसे हार का सामना करना पड़ा, लेकिन इन अपवादों को छोड़ दें तो राज्य-दर-राज्य भाजपा की सफलता का ग्राफ चढ़ता ही गया है। आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी से पूछा कि कर्नाटक में इस शपथ ग्रहण समारोह का संदेश क्या है? इस सवाल पर येचुरी ने खुशी जताई कि विपक्ष ने हार कर भी सरकार बनाई है।

एक बार फिर भाजपा की रणनीति को नाकाम करने में हम सफल रहे हैं। गोवा, मणिपुर, मेघालय में भाजपा ने जो रणनीति खेली थी, कर्नाटक में उसी में वह नाकाम रही है। इसी के साथ येचुरी ने शंका भी जताई कि भाजपा 3 महीने में ही सरकार गिरा सकती है। इस संदर्भ में उन्होंने कर्नाटक भाजपा के दिग्गज नेता एवं केंद्रीय मंत्री सदानंद गौड़ा का नाम भी लिया। येचुरी, नायडू और डी. राजा का यह संवाद कोरी कल्पना नहीं है, बल्कि एक वीडियो का सच है।

हालांकि हम उस वीडियो की पुष्टि नहीं कर सकते, लेकिन खुद मुख्यमंत्री कुमारस्वामी बोले-‘यह सरकार चलेगी, इस पर मुझे तो क्या, राज्य के लोगों को भी भरोसा नहीं है।’ इस बयान के बाद येचुरी की आशंका पर सवाल नहीं किए जा सकते। बेशक कर्नाटक मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में देश के 11 दलों के नेता आए। उनमें एक पूर्व प्रधानमंत्री, 5 मुख्यमंत्री, 5 पूर्व मुख्यमंत्री और 4 सांसद दिखाई दिए।

उनमें कुछ चेहरे ऐसे थे, जो ह्यस्वयंभू प्रधानमंत्रीह्ण के तौर पर आंके जाते हैं। बहरहाल विपक्ष के नेताओं की बाहें हवा में उठीं, हाथ मिले, अलबत्ता सोनिया गांधी और शरद पवार की बाहें दूर-दूर ही रहीं। मायावती और अखिलेश यादव के हाथ नहीं मिले। तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक गैरहाजिर रहे। वे गैरकांग्रेस और गैरभाजपा की राजनीति में विश्वास रखते हैं।

प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ जिस विपक्षी एकता की नुमाइश की गई है, वह भी घोर सवालिया है। क्या आंध्रप्रदेश में कांग्रेस और टीडीपी या कांग्रेस और वाईएसआर-कांग्रेस में गठबंधन होगा? क्या बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल और प्रमुख विपक्षी वाममोर्चा तथा कांग्रेस सभी एक साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं? क्या ओडिशा में बीजद और कांग्रेस में गठजोड़ संभव है, जबकि बीजद बुनियादी तौर पर कांग्रेस-विरोधी दल है?

महाराष्ट्र में कांग्रेस और एनसीपी में गठबंधन तो स्वाभाविक है, क्योंकि वह पहले भी रहा है, लेकिन भाजपा से अलग होने के बाद शिवसेना क्या इनके गठबंधन में शामिल हो सकती है? कुछ विरोधाभास ये हैं कि ममता राहुल गांधी को नेता मानने को तैयार नहीं हैं। मायावती उपचुनाव में सपा का साथ दे सकती है, क्योंकि सैद्धांतिक तौर पर बसपा उपचुनाव नहीं लड़ती, लेकिन क्या वह अखिलेश यादव को अपने से बड़ा नेता मान लेंगी? सवाल यह भी है कि मायावती, अखिलेश यादव और राहुल गांधी एकसाथ या अलग-अलग कैराना चुनाव में क्यों नहीं गए? असल में कर्नाटक ही नहीं, देशभर में जो विपक्षी एकता दिख रही है। उसका मकसद केवल भाजपा के बढ़ते कदमों को रोकना ही है।

आपसी मनभेद-मतभेद भुलाकर तमाम दल एक मंच पर आने की कोशिशों में जुटे हैं। लेकिन ये तमाम गठबंधन परवान चढ़ेंगे, इसका भरोसा देश की जनता को तो क्या खुद राजनीतिक दलों को भी नहीं है। कर्नाटक में भले ही कांग्रेस ने बड़ा दिल दिखाते हुए तीसरे पायदान पर खड़ी जेडीएस को मुख्यमंत्री पद सौंपा हो, लेकिन अंदर खाने कांग्रेस कुमारस्वामी सरकार को अपने इशारे पर नचाना चाहती है।

जिस कर्नाटक में तमाम विरोधी दलों के नेताओं ने एकजुट होकर विपक्षी एकता का संदेश दिया है, कहीं वहीं कर्नाटक विपक्षी एकता की कब्र खोदने का काम न कर दे, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। जिस प्रकार सरकार गठन के चंद दिनों बाद ही जेडीएस और कांग्रेसी खेमे से विरोधी बयानबाजी की जा रही है, उससे कर्नाटक सरकार के भविष्य का संहज अंदाजा लगाया जा सकता है।

सीताराम येचुरी ने जो आशंका जताई है, वह निराधार नहीं है। कर्नाटक भाजपा की राजनीतिक उम्मीदों का एक आधार है, लिहाजा वह कांग्रेस-जद (एस) का ह्यअनैतिक गठबंधनह्ण किसी भी सूरत में 2019 तक नहीं चलने देगी। निशाना जद-एस को बनाया जा सकता है, क्योंकि उसके 38 विधायक ही हैं। उनमें कई विधायक ऐसे हैं, जिन पर लिंगायत समुदाय का दबाव बन सकता है।

वे अपनी विधायिका का जोखिम उठाकर सत्तारूढ़ पक्ष से अलग हो सकते हैं। अब कर्नाटक में यह प्रक्रिया कैसे होती है, यह तब तक एक सवाल है जब तक यथार्थ सामने नहीं आता। जिस तरह कर्नाटक विधानसभा चुनाव पर पूरे देश की निगाहें टिकी थीं, उसी तरह कर्नाटक की सरकार पर भी देश भर की निगाहें टिकी हैं। अगर कांग्रेस जेडीएस गठबंधन की सरकार कामयाब होती है तो यह देश में विपक्षी एकता को मजबूत करने का काम करेगा, लेकिन फिलवक्त ऐसा आभास हो रहा है कि कर्नाटक की सरकार कागज की नाव पर सवार दिख रही है।

-राजेश माहेश्वरी