गोरखालैंड आंदोलन ने पश्चिम बंगाल में हिंसक रूप धारण कर लिया है। इसके साथ ही इस मामले में राजनीति भी तेज हो गई है। तीखे भाषण देने वाली प्रदेश की मुख्यमंत्री परिस्थितियों को समझने व संयम से काम लेने की बजाय बदले की भावना से काम कर रही हैं। ममता ने आंदोलनकारियों को आतंकी कहकर नया विवाद खड़ा कर दिया है।
ममता इस सारे विवाद को भाजपा एंव मोदी सरकार की राजनीति करार देकर तुच्छ राजनीति पर भी उतारू हैं। परिस्थितियों के अनुसार, प्रदेश सरकार को चाहिए कि वह केंद्र सरकार का सहयोग ले। प्रदेश व केंद्र सरकार दोनों मिलकर गोरखा आंदोलन का समाधान निकाल सकते हैं।
लेकिन यह काफी दु:खद है कि गोरखा आंदोलन की आड़ में ममता बनर्जी केंद्र सरकार को बदनाम कर अपना कद बढ़ाना चाह रही हैं। प्रदर्शनकारियों के साथ प्रदेश सरकार वार्ता कर इस आंदोलन का पटाक्षेप कर सकती हैं, न कि उन्हें आतंकी कहकर प्रदेश का नुक्सान करवाया जाए। आंदोलन कोई भी हो, तो आम जन मानस में बहुत सी अफवाहें भी फैल जाती हैं।
आजकल तो सोशल मीडिया का दौर है, ऐसे में ये अफवाहें भयवाह रूप भी धर लेती हैं। वर्ष 1985-98 के दौरान गोरखालैंड आंदोलन में 1000 से ज्यादा लोग मारे गए थे। अत: प्रदेश सरकार को माहौल शांत करने के प्रयास तेज कर देने चाहिएं। इस वक्त राजनीतिक बयानबाजी से ज्यादा शासन प्रबंध आवश्यक हैं।
दार्जीलिंग पश्चिम बंगाल का ही नहीं, पूरे भारत का प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है, जिससे पश्चिम बंगाल सरकार को अच्छी आय भी होती है। आंदोलन चलता रहता है तब इस सीजन में पर्यटन प्रभावित होगा, जिसका नुक्सान आंदोलकारियों को भी होगा व प्रदेश सरकार को भी होगा। जहां तक पृथक गोरखलैंड राज्य के निर्माण की बात है तो पृथक राज्यों की मांग देश के अन्य हिस्सों में भी हो रही है।
क्षेत्र के महत्व व स्थानीय लोगों की समस्याओं को देखते हुए केंद्र सरकार ने नये राज्यों का भी गठन किया है। अत: जब आमजन को लगता है कि किसी विशेष भू-भाग से जुड़े रहने पर उनके विकास की अनदेखी हो रही है, तब वह आंदोलन कर सकते हैं जोकि उनका संवैधानिक अधिकार भी है। यह सरकार का दायित्व है कि वह अंसतुष्टों को कैसे संतुष्ट कर पाती है।
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