धु्रवीकरण की कड़ियां तोड़ेगा अच्छा मतदान

Good voting breaks

त्रहवीं लोकसभा के दो चरणों के बाद जो तीसरे और चौथे चरण में मतदान का प्रतिशत बढ़ा दिखाई दिया है, उससे साफ है, जातीय और सांप्रदायिक धु्रवीकरण की कड़ियां टूटेंगी। चौथे चरण का मतदान संपन्न होने के बाद करीब पौने चार सौ सीटों पर पश्चिम बंगाल को छोड़ कमोबेश शांतिपूर्ण मतदान हुआ है। हालांकि गर्मी की तपिश से यह जान पड़ रहा था कि चौथे चरण में पिछले तीन चरणों की तुलना में कम मतदान होगा।

लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 29 अप्रैल की सुबह जब यह बयान दिया कि लोग भारी संख्या में मतदान करें और पिछले तीन चरणों के सारे रिकॉर्ड तोड़ दें। नतीजतन तेज धूप के बावजूद 1,40,852 मतदान केंद्रों पर लंबी-लंबी कतारें देखने में आई। मध्य-प्रदेश में 73.61, पश्चिम बंगाल में 76.72 प्रतिशत मतदान हुआ, लेकिन जम्मू-कश्मीर की जिस एक सीट पर मतदान हुआ है, वहां का प्रतिशत 9.79 ही रहा। साफ है, आतंक के भय का साया घाटी में बरकरार है। इस चरण के मतदान का औसत 63.76 रहा।
मतदाता राष्ट्रहित प्रमुख मानते हुए मतदान करता है तो केंद्र में आने वाली नई सरकार से राष्ट्रहित में लोक हितकारी निर्णयों की उम्मीद बढ़ जाती है। इस चुनाव में जिस तरह से भाजपा, कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दल के नेता प्रचार के दौरान अनर्गल बोल बोलकर माहौल को गरमा रहे हैं, उस अनुपात में मतदाता को मतदान के लिए तैयार करने में सफल नहीं हुए। इस बार औसत 80 प्रतिशत मतदान होना चाहिए था, जो नहीं दिखा। दरअसल भारी मतदान गुणात्मक बदलाव का संकेत होता है। यदि यह स्थिति बनती तो राजग गठबंधन की सीटों की संख्या 2014 में मिलीं 330 रह सकती थीं, किंतु अब यह स्थिति बनी रहना मुमकिन नहीं है।

हालांकि पश्चिम बंगाल में मतदान का औसत 80 प्रतिशत तक रहा है। जो राजग गठबंधन के लिए शुभ संकेत लग रहा है। दरअसल चुनाव विश्लेषकों की यह धरणा बनी हुई है कि मतदान का बड़ा प्रतिशत सरकार के विरुद्ध हुआ मतदान है। जबकि कम या बराबर मतदान सत्ताधारी दल के पक्ष में माना जाता है। हालांकि यह कोई ऐसा मिथक नहीं है कि कभी टूटा ही न हो ? कई मर्तबा देखने में आया है कि अधिक मतदान के बावजूद सरकारें सत्ता में बनी रही हैं और कम मतदान के बाद भी सत्ता से बेदखल हुई हैं। इस चुनाव में राजग की वापसी का वह 8.1 करोड़ युवा मतदाता कारण बन सकता है, जो पहली बार मतदान करेगा, क्योंकि इस पर देशभक्ति और राष्ट्रवाद का जुनून सवार होता दिख रहा है। ऐसे में भोपाल से दिग्विजय सिंह के विरुद्ध साध्वी प्रज्ञा भारती को भाजपा उम्मीदवार बनाना, इस धु्रवीकरण को देशभर में और पुख्ता करेगा।

बहुआयामी चुनाव सुधार के कारगर नतीजे पूरे देश में दिख रहे हैं। इसका श्र्रेय निर्वाचन आयोग के साथ, लोकतंत्र के इस अभूतपूर्व पर्व में भागीदारी के लिए प्रोत्साहित करने की उन अपीलों को भी जाता है,जो दृश्य, श्रव्य व मुद्रित प्रचार माध्यमों से निरंतर जारी हैं। पूर्वोत्तर भारत से लेकर दशों दिशाओं में शांतिपूर्ण मतदान में जो सुधार हुआ है, उसे बेहतर, पारदर्शी व फोटो लगी मतदाता सूचियों का भी बड़ा योगदान है। चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के बाद आयोग ने छूटे रह गए मतदाताओं को अपने नाम का पंजीयन कराने का जो अवसर दिया, उसे भी रेखाकिंत करना जरूरी है। आयोग की सख्ती के चलते आपत्तिजनक एवं शर्मनाक बयानों पर अंकुश लग गया है। ये बयान कड़वाहट घोलने के साथ सांप्रदायिक धु्रवीकरण का भी काम कर रहे थे। चार नेताओं पर 72 घंटे कुछ भी नहीं बोलने पर प्रतिबंध लगाने के बाद यह परिणाम देखने में आया है। इससे पता चलता है कि आयोग आचार संहिता के उल्लंघनों को गंभीरता से ले रहा है।
देश की सत्रहवीं लोकसभा की तकदीर लिखने में युवाओं की अहम एवं निर्णायक भूमिका रहने की उम्मीद की जा रही है। गोया, सभी राजनीतिक दलों की निगाहें युवाओं पर टिकी हैं। बढ़ती बेरोजगारी को लेकर युवा नरेंद्र मोदी सरकार से नाराज दिख रहे थे, लेकिन पुलवामा में सुरक्षाबल पर हुए आत्मघाती हमले और फिर बालाकोट में की गई वायुसेना की एयर स्ट्राइक के बाद ऐसा लग रहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा ने युवाओं के भीतर राष्ट्रवाद को जबरदस्त ढंग से उभारा है।

सोशल मीडिया ने इस ज्वार को उभारने में तीव्रता की भूमिका निभाई है। बहरहाल, 2019 के आम चुनाव में 8.1 करोड़ ऐसे मतदाता होंगे, जो पहली बार अपने मत का उपयोग करेंगे ? इसमें नए मतदाताओं की भूमिका यदि वे विवेक से मतदान करें तो निर्णायक हो सकती है। क्योंकि निर्वाचन आयोग द्वारा जारी किए, ताजा आंकड़ों के मुताबिक 282 लोकसभा सीटों पर उम्मीदवारों की किस्मत की कुंजी उन्हीं के हाथ में है। आयोग द्वारा उम्रवार मतदाताओं के वर्गीकरण व विश्लेषण की जो रिपोर्ट आई है, उसके अनुसार इस चुनाव में 8.1 करोड़ नए मतदाता होंगे। ये युवा मतदाता 29 राज्यों की कम से कम 282 सीटों पर चुनावी समीकरणों को प्रभावित करेंगे। प्रत्येक लोकसभा सीट पर करीब 1.5 लाख मतदाता ऐसे होंगे, जो पहली बार मतदान करेंगे।

आयोग की सख्ती से चुनाव गुंडा-शक्ति से मुक्त हुए हैं। इस कारण मतदान केंद्रो पर लूटपाट और खून-खराबे के जो हालात बन जाते थे, उनका कमोबेश खात्मा हो गया है। भय-विहीन स्थिति के चलते आम मतदाता निसंकोच मतदान करने लगा है। नोटा के विकल्प ने भी मतदाता को आकर्षित किया है। लिहाजा मौजूदा उम्मीदवारों से निराश मतदाता नकारात्मक मत प्रयोग के लिए घरों से निकलने लगे हैं। जाहिर है, अतिवादी ताकतें कमजोर पड़ रही हैं। सजायाफ्ताओं के चुनाव लड़ने के प्रतिबंध से भी चुनाव प्रक्रिया साफ-सुथरी व भयमुक्त हुई है।
मतदान के अगले तीन चरणों में यदि मतदान 70 फीसदी से ऊपर पहुंचता है तो यह स्थिति लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत होगी। यह वजह कालांतर में अल्पसंख्यक समुदाओं व जातीय समूहों को वोट बैंक की लाचारगी से मुक्ति दिलाएगाी। दलों को भी तृष्टिकरण की राजनीति से छुटकारा मिलेगा। बढ़ा मतदान उन सब मिथकों को तोड़ देगा जो तुष्टिकरण के कारक बने हुए हैं। जाहिर है, मतदाताओं के धु्रवीकरण की राजनीति को पलीता लगेगा। नतीजतन संप्रदाय और जाति विशेष की राजनीति करने वाले नेताओं को झटका लगेगा। हालांकि इस चुनाव में एक बार फिर किसान और गरीब दलों के घोषणा पत्रों में केंद्र में आ गया है। कांग्रेस की न्याय योजना गरीब को लुभा रही है, वहीं मोदी की आवास, उज्जवला, शौचालय और किसानों को 6000 रुपए सालाना दिए जाने की योजनाएं आज भी गरीब तबके को भरोसे की लग रही हैं।
बढ़ा या घटा मतदान किस दल के फेवर में है, इसका एकाएक आकलन करना मुश्किल है, लेकिन बदलाव का स्पष्ट संकेत इसमें अंतनिर्हित है। यदि मुकाबला सीधा दो दलों के बीच होता तो इसे सत्ता पक्ष के विरूद्ध माना जा सकता है। राजनीतिक घोषणा-पत्र के साथ जो भी दल चुनावी मैदान में हैं, उन्हें महज वोट कटवा दल कहकर नकारा नहीं जा सकता है। बहुकोणीय गोलबंदियों के चलते भी मतदान बढ़ता है। जाहिर है, बहुकोणीय मुकाबला जटिल होता है, इसलिए इसके निष्कर्ष निकालना कठिन है। इस चुनाव में केवल राष्ट्रीय मुद्दे प्रभावी नहीं रहेंगे, जहां क्षेत्रीय दल मजबूत हैं, वहां स्थानीय मुद्दों का भी असर दिखेगा। क्षेत्रीय दल भी सत्रहवीं लोकसभा में अधिकतम सीटों के साथ उपस्थिति दर्ज कराना चाहते हैं, इसलिए हर स्तर पर ये दल भी मतदाता को लुभाकर ईवीएम का बटन दबाने को बाध्य कर रहे हैं। बहरहाल इस चुनावी यज्ञ में मतदान के रूप में जितनी ज्यादा आहुतियां पड़ेंगी, लोकतंत्र उतना ही पारदर्शी और मजबूत होगा।
प्रमोद भार्गव

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