17वीं लोकसभा का चुनाव होने के बाद संसद का प्रथम सत्र नकारात्मकता में शुरू हुआ। संसदीय व लोकतांत्रिक प्रणाली के 72 वर्षों के बाद भी हम देश, संसद व लोकतंत्र की मर्यादा को नहीं समझ सके। सांसदों के शपथ ग्रहण समारोह में एक दूसरे पर कटाक्ष करने वाली नारेबाजी हुई, जिससे स्पष्ट था कि हम अभी भी एकजुटता से काम करने के लिए तैयार नहीं। हम धार्मिक तौर पर एक दूसरे को बर्दास्त नहीं कर रहे। एक-दूसरे की धार्मिक भावनाओं को भड़काने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। यदि ऐसी धार्मिक नारेबाजी किसी गली-मौहल्ले या चौक में भी शोभा नहीं देती।
लेकिन देश की सबसे बड़ी पंचायत में इस प्रकार की नारेबाजी होना चिंता का विषय है। इसीलिए तो हम हिन्दू, सिख, मुस्लमान व ईसाई में बंटे हुए हैं। जब जनता के चुने हुए सांसद ही सद्भावना की बात नहीं करेंगे तो उनके चहेतों व समर्थकों का व्यवहार किस प्रकार का होगा, इस बारे में किसी को कोई भ्रम नहीं रह जाता। सद्भावना की कमी ही एक सबसे बड़ी कमजोरी है, जो हमें विश्व की नजर में नीचा दिखा रही है। इस संदर्भ में हमें अब अपने ही नसीहत दे रहे हैं। विदेशों में चुने गए भारतीय नेता वहां के कानून व संस्कृति से इतने प्रभावित हुए हैं कि वे अब खुद को अमेरिकी, कैनेडियन, आस्ट्रेलियन कहलवाने में गर्व महसूस करते हैं। हालांकि कई लोगों को वहां रहते हुए केवल 10-15 वर्ष ही हुए हैं, लेकिन भारत में जन्म लेकर, फिर युवा अवस्था में खुद को भारतीय समझने के लिए तैयार नहीं। यही कारण है कि प्रत्येक वर्ष धर्म के नाम पर देश में दंगे-फसाद होते हैं।
यदि सांसद ही अपनी नैतिक जिम्मेवारी को समझें तो सांप्रदायिक घटनाओं में गिरावट क्यों नहीं आ सकती? विश्व के बड़े लोकतंत्र को केवल राजनीतिक तौर पर ही कामयाब करने की आवश्यकता नहीं बल्कि लोकतंत्र के मानववादी संकल्प को भी स्थापित करने की आवश्यकता है, जो सर्वसम्मति की भावना पर टिका हुआ है, यहां कोई भी पराया नहीं है। संसद का उद्देश्य इस देश को खुशहाल बनाना है न कि देश के लोगों में नफरत फैलाना है। संसद से भाईचारा व एकता की ही खुशबू आनी चाहिए।
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