-भारत में समय-समय पर क्षेत्रीय दलों की सत्ता उभरती रही है। भारत में बहुदलीय व्यवस्था अभी भी कहीं गयी नहीं है। अब तो ऐसा हो गया है कि सियासत में कमजोर पड़ चुके राश्ट्रीय दल, क्षेत्रीय दलों के सहारे अपनी राजनीतिक पारी आगे बढ़ा रहे हैं। कांग्रस और भाजपा दोनों इसमें शामिल है मसलन हरियाणा इसका ताजा उदाहरण है। यही स्थिति झारखण्ड से लेकर महाराष्ट्र तक कांग्रेस की देखी जा सकती है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि क्षेत्रीय दल स्थानीय समस्याओं से तुलनात्मक अधिक संलग्न होते हैं।
झारखण्ड अपने निर्माण काल से एक स्थिर सरकार की अवधारणा से वंचित रहा। पिछले 19 वर्षों में जितनी भी सरकारें आईं केवल भाजपा की तत्कालीन सरकार को छोड़कर सभी स्वयं में असुरक्षित रहीं। हालांकि इस सरकार को भी 81 विधानसभा सीट के मुकाबले 2014 में 37 पर ही जीत मिली थी जो अब सिमट कर 25 रह गयी है। पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मराण्डी से लेकर अब नये मुख्यमंत्री की तैयारी कर रहे हेमंत सोरेन तक इस सत्य को साझा करते हैं कि इन्होंने झारखण्ड में अस्थिर सरकार दिया।
हालांकि अब वही हेमंत सोरेन गठबंधन से भरी पूर्ण बहुमत की सरकार का मुखिया होने जा रहे हैं। रघुबर दास से पहले नौ बार सत्ता परिवर्तन और तीन बार राष्ट्रपति शासन वाला झारखण्ड अपना कोई विकास मॉडल विकसित ही नहीं कर पाया। जब 2014 में स्थायी तौर पर भाजपा की सरकार आयी तो इसके बनने के पीछे प्रधानमंत्री मोदी का चेहरा था। हार से यह प्रतीत होता है कि भाजपा की सत्ता हांक रहे रघुबर दास का विकास मॉडल विफल रहा। हालांकि इसके पीछे राज्यों में भाजपा की जादुई छवि का बेअसर होना भी देखा जा सकता है।
जिस विजय रथ पर सवार होकर भाजपा भारत पर कब्जा जमा रही थी और मार्च 2018 तक तीन-चौथाई क्षेत्र पर उसकी पताका लहरा रहा थी आज वही एक तिहाई पर सिमट कर रह गई और यह सिमटने का सिलसिला 2018 से तब शुरू हुआ जब कांग्रेस और जीडीएस गठबंधन ने कर्नाटक में सरकार बना ली। हालांकि अब उसी कर्नाटक में भाजपा की पूर्ण सत्ता है पर सिमटने की दस्तक वहां से शुरू हो चुकी है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ से सत्ता पिछले साल इन्हीं दिनों गवांने वाली भाजपा इस साल महाराष्टÑ और झारखण्ड से विदा हो गयी। जबकि जैसे-तैसे हरियाणा को बचाने में कामयाब रही।
सवाल है कि क्या झारखण्ड का कोई विकास मॉडल नहीं था यदि था तो लोगों को रास नहीं आया या फिर लोगों में सरकार विश्वास ही नहीं भर पायी। ऐसा लगता है कि राष्ट्रीय दलों की सरकारें राज्यों में व्यापक सोच के साथ तो होती हैं पर जनहित के जरूरी कदम उठाने में हांफ जाती हैं। 1989 की राजनीति में एक दौर ऐसा था जब क्षेत्रीय दलों का पर्दापण भारतीय राजनीति में तेजी से हुआ। हालांकि यह पूरी तरह तो नहीं पर स्थिति को देख कर कहा जा सकता है कि तीन दशक बाद 2019 के दौर में एक बार फिर क्षेत्रीय दल राज्य में स्थान घेर रहें हैं।
महाराष्ट्र में शिवसेना, सरकार का भले ही निर्माण कैसे भी क्यों न हुआ हो और हरियाणा में जेजेपी के समर्थन से भाजपा की सत्ता में वापसी और अब झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का कांग्रेस व अन्य के साथ झारखण्ड में एक बार फिर अवतार लेना इस बात को पुख्ता करते हैं। आंकड़े यह दशार्ते हैं कि झारखण्ड कोई मॉडल राज्य बन ही नहीं पाया और बीजेपी भी ऐसा करने में नाकाम रही। साक्षरता का प्रतिशत 66.4 फीसदी जो केवल तीन राज्यों से ऊपर है और निर्धनता अपनी बसावट लिए हुए है। लिंग सम्बद्ध विकास सूचकांक में भी राष्ट्रीय स्तर पर बहुत आशातीत आंकड़े नहीं हैं।
गौरतलब है कि झारखण्ड में जनजातियों की संख्या 28 फीसद है जो हर सरकार से संतुलित विकास की बाट जोहती रही। इस पर कितना काम हुआ भाजपा की हार इसे स्पष्ट कर देती है। स्थानीय मुद्दों को हल करने के बजाय वहां के भावनात्मक मुद्दों को छेड़ना बीजेपी के लिए गले की फांस बनी। जल, जंगल और जमीन के साथ छेड़छाड़ हार को और पुख्ता कर दिया। जाहिर है राज्यों की स्थानीय आवश्यकताओं पर पूरी तरह शोध और बोध किये बगैर यदि सियासी पैंतरे अजमाये जायेंगे तो हिस्से में हार ही आयेगी। यह पहले भी होता रहा है और अभी भी यह सियासत से लुप्त नहीं हुआ है।
भारत में समय-समय पर क्षेत्रीय दलों की सत्ता उभरती रही है। भारत में बहुदलीय व्यवस्था अभी भी कहीं गई नहीं है। अब तो ऐसा हो गया है कि सियासत में कमजोर पड़ चुके राष्ट्रीय दल, क्षेत्रीय दलों के सहारे अपनी राजनीतिक पारी आगे बढ़ा रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा दोनों इसमें शामिल हैं मसलन हरियाणा इसका ताजा उदाहरण है। यही स्थिति झारखण्ड से लेकर महाराष्ट्र तक कांग्रेस की देखी जा सकती है। इसमें कोई दुविधा नहीं कि क्षेत्रीय दल स्थानीय समस्याओं से तुलनात्मक अधिक संलग्न होते हैं। न केवल अच्छी समझ रखते हैं बल्कि सत्ता में बने रहने के लिए लोगों की सुविधा को जमीन देने का पूरा इरादा जताते हैं। दक्षिण भारत में तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना वर्तमान में इसके बेहतर उदाहरण हैं।
जहां स्थानीय दल सत्ता चला रहे हैं। हर समय कोई भी पार्टी इतनी सक्षम नहीं है कि हर जगह जीत दर्ज करे। भाजपा हो या कांग्रेस यह दोनों पर लागू है। चुनाव जीतने के लिए समस्याओं की सही समझ और जनता के रूख को भांपना आवश्यक है। हर बार चुनावी रूख एक ही तरफ नहीं होता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से लेकर स्मृति ईरानी जैसे दर्जनों दिग्गज ने झारखण्ड में तूफानी दौरे किये। आदिवासी मतदाताओं को अपने एजेण्डे बताये उनका मन जीतने के लिए हथकण्डे अपनाये मगर सब बेकार सिद्ध हुआ।
81 विधानसभा क्षेत्र के मुकाबले 54 में बीते लोकसभा चुनाव में बढ़त बनाने वाली भाजपा की हार क्यों हुई, यह उनके चिंतकों का विषय है। अर्मत्यसेन की पुस्तक एन अनसर्टेन ग्लोरी में लिखा है कि हिमाचल का अपना विकास मॉडल है, उत्तराखण्ड भी विकास मॉडल के साथ प्रयास कर रहा है लेकिन झारखण्ड भ्रष्टाचार, गुटबंदी और संसाधनों की लूट, माओवादियों के साथ राजनीतिक लड़ाई के चलते कई आंतरिक कलह से जूझ रहा है यह बात बरसों पुरानी है। क्या 5 बरस बाद रघुबर सरकार ने झारखण्ड को विकास मॉडल दिया, संसाधनों की लूट को समाप्त किया और वहां के निवासियों में विकास भरा। जाहिर है यदि ऐसा हुआ होता तो सत्ता उनके हाथ होती।
सुशासन गढ़ने हेतु प्रान्तों को विकास मॉडल देना ही होगा और यह जमीन पर तब उतरेगा जब भाषा, संस्कृति, धर्म और जाति आदि का संज्ञान होगा। वैसे देखा जाय तो क्षेत्रीय पार्टियों का जन्म भी इसी आधार पर हुआ है। यह मान्यता रही है कि ऐसी पार्टियां उद्देश्य में बहुत सीमित रहती हैं बावजूद इसके केन्द्र में इनकी भूमिका भी बड़े पैमाने पर समय-समय पर देखी गयी है। भारत की राजनीति के क्षितिज में गठबंधन की सरकार क्षेत्रीय दलों की सरकार और एक दल की सरकार की अवधारणा बीते सात दशकों से देखी जा सकती है।
ऐसे में झारखण्ड में भाजपा की हार कोई चौकाने वाली बात नहीं है। मगर उन सवालों के जवाब तो खोजने ही पड़ेंगे जिसे लेकर बीते पांच वर्षों में भाजपा ने देश में अपनी कूबत बढ़ाई और अब गिर क्यों रही है। क्या भाजपा को अति आत्मविश्वास डूबो रहा है। क्या वहां के क्षेत्रीय दलों से गठबंधन न करना भारी पड़ रहा है या फिर रघुबर दास जैसे गैरआदिवासी को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने कोई गलती की है। पार्टी में टूट हुई और नेता बेअसर रहे या फिर जीतने वाले गठबंधन को हल्के में लिया। वजह कुछ भी हो भाजपा के हाथ से एक और प्रान्त जा चुका है।
अब लकीर पर लट्ठ पीटने से कुछ नहीं होगा। सवाल तो यह भी है कि अनुच्छेद 370 का जम्मू-कश्मीर से खात्मा, भले ही सर्वोच्च न्यायालय का फैसला हो पर मन्दिर के पक्ष में निर्णय का होना कुछ भी यहां भाजपा के पक्ष में नहीं रहा। इसमें यह भी संकेत है कि राष्ट्रीय मुद्दे राज्यों में नहीं चलते।
–सुशील कुमार सिंह
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