राष्ट्र का एक भी व्यक्ति अगर दृढ़ संकल्प से आगे बढ़ने की ठान ले तो वह शिखर पर पहुंच सकता है। विश्व को बौना बना सकता है। पूरे देश के निवासियों का सिर ऊंचा कर सकता है, भले ही रास्ता कितना ही कांटों भरा हो, अवरोधक हो। भारत की नई उड़नपरी 19 वर्षीय असमिया एथलीट हिमा दास ने महज इक्कीस दिनों के भीतर चेक गणराज्य में आयोजित ट्रैक एंड फील्ड अंतराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में छह स्वर्ण पदक हासिल कर यह साबित कर दिया है कि देश में प्रतिभाओं और क्षमताओं की कमी नहीं है। हिमा ने अपनी शानदार उपलब्धियों से भारतीय ऐथलेटिक्स में स्वर्णिम अध्याय रचे हैं।
इनदिनों इस गोल्डन गर्ल की अनूठी एवं विलक्षण गोल्डन जीत की खबरें अखबारों में शीर्ष में छपती रही तो सभी भारतीय गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। चैंपियंस अलग होते हैं, वे भीड़ से अलग सोचते एवं करते हैं और यह सोच एवं कृत जब रंग लाती है तो बनता है इतिहास। हिमा कुछ इसी तरह चैंपियन बनकर उभरी हैं। वह गत वर्ष जकार्ता एशियन गेम्स से पहली बार दुनिया की नजरों में आई और आज बन गई हैं हर किसी की आंखों का तारा। यह 19 वर्षीय किशोरी आज अपने प्रदर्शनों एवं खेल प्रतिभा से दुनिया को चौंका रही है। अपने हमउम्र एथलीटों के साथ-साथ सबकी प्रेरणा बन गई हैं।
हिमा ने जाहिर किया है कि सही वक्त पर, सही प्रतिभा को प्रोत्साहन एवं प्राथमिकता मिल जाए तो खेलों की दुनिया में देश का नाम सोने की तरह चमकते अक्षरों में दिखेगा। हाल में पोलैंड और चेक गणराज्य में आयोजित एथलेटिक्स प्रतियोगिताओं के तहत अलग-अलग दौड़ स्पधार्ओं में हिमा दास एक के बाद एक लगातार अव्वल नंबर पर आई और छह स्वर्ण पदक जीते। हिमा ने दो सौ और चार सौ मीटर की दौड़ स्पर्धा में नए कीर्तिमान बनाए। यों किसी भी खिलाड़ी के इस तरह लगातार अव्वल आने पर दुनिया का ध्यान जाना लाजिमी है।
यह बेवजह नहीं है कि भारत में न केवल शीर्ष स्तर के नेताओं और खिलाड़ियों ने हिमा दास को शुभकामना दी, बल्कि बाकायदा राज्यसभा की ओर से उनकी उपलब्धियों के लिए बधाई दी गई और उन्हें पूरे देश के खिलाड़ियों के लिए प्रेरणास्रोत बताया गया। देश की अस्मिता पर नित-नये लगने वाले भ्रष्टाचार, बलात्कार, दुराचार के दागों एवं छाई विपरीत स्थितियों की धुंध को चीरते हिमा के जज्बे ने ऐसे उजाले को फैलाया है कि हर भारतीय का सिर गर्व से ऊंचा हो गया है। उसने एक ऐसी रोशनी को अवतरित किया है जिससे देशवासियों को प्रसन्नता का प्रकाश मिला हं। हमारे देश में यह विडंबना लंबे समय से बनी है कि दूरदराज के इलाकों में गरीब परिवारों के कई बच्चे अलग-अलग खेलों में अपनी बेहतरीन क्षमताओं के साथ स्थानीय स्तर पर तो किसी तरह उभर गए, लेकिन अवसरों और सुविधाओं के अभाव में उससे आगे नहीं बढ़ सके।
लेकिन इसी बीच कई उदाहरण सामने आए, जिनमें जरा मौका हाथ आने पर उनमें से किसी ने दुनिया से अपना लोहा मनवा लिया। हिमा दास उन्हीं में से एक हैं, जिन्होंने बहुत कम वक्त के दौरान अपने दम से यह साबित कर दिया कि अगर वक्त पर प्रतिभाओं की पहचान हो, उन्हें मौका दिया जाए, थोड़ी सुविधा मिल जाए तो वे दुनिया भर में देश का नाम रोशन कर सकती हैं। हिमा विश्व स्तर पर ट्रैक स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीतनेवाली पहली भारतीय खिलाड़ी रही हैं।
इससे पहले भारत के किसी भी महिला या पुरुष खिलाड़ी ने जूनियर या सीनियर किसी भी स्तर पर विश्व चैंपियनशिप में गोल्ड नहीं जीता है। इस तरह हिमा की उपलब्धि उन तमाम ऐथलीटों पर भारी है, जिनके नाम दशकों से दोहराकर हम थोड़ा-बहुत संतोष करते रहे हैं, फिर चाहे वह फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह हों या पीटी उषा। हिमा की यह और पूर्व की उपलब्धियां आने वाले समय में देश के अन्य एथलीटों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करेगी।
यूं तो भारतीय ओलिंपिक संघ की स्थापना 1923 में हुई, लेकिन मानव जाति की शारीरिक सीमाओं की कसौटी समझे जानेवाले इस क्षेत्र में पहली उल्लेखनीय उपलब्धि 1960 के रोम ओलिंपिक में मिली, जब मिल्खा सिंह ने 400 मीटर दौड़ में चौथे स्थान पर रहकर कीर्तिमान बनाया, जो इस स्पर्धा में 38 वर्षों तक सर्वश्रेष्ठ भारतीय समय बना रहा। चार वर्ष बाद टोक्यो में गुरबचन सिंह रंधावा 110 मीटर बाधा दौड़ में पांचवें स्थान पर रहे। 1976 में मांट्रियल में श्रीराम सिंह 800 मीटर दौड़ के अंतिम दौर में पहुंचे, जबकि शिवनाथ सिंह मैराथन में 11वें स्थान पर रहे। 1980 में मॉस्को में पीटी उषा का आगमन हुआ जो 1984 के लॉस एंजिल्स ओलिंपिक में महिलाओं की 400 मीटर बाधा दौड़ में चैथे स्थान पर रहीं। एशियाई खेलों में कुछ ऐथलीटिक स्वर्ण जरूर हमारे हाथ लगे।
किसी अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक्स ट्रैक पर भारतीय एथलीट के हाथों में तिरंगा और चेहरे पर विजयी मुस्कान, इस तस्वीर का इंतजार लंबे वक्त से हर हिंदुस्तानी कर रहा था। खेतों में काम करने वाली हिमा ने यह अनिर्वचनीय खुशी दी है और बार-बार दे रही है। हिमा की कहानी किसी फिल्मी स्टोरी से कम नहीं है। उसे अच्छे जूते भी नसीब नहीं थे। छोटे-से गांव ढिंग में रहने वाली हिमा 6 बच्चों में सबसे छोटी है। लड़कों के साथ खेतों में फुटबॉल खेलने वाली हिमा ने वह कर दिखाया, जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। फुटबॉल में खूब दौड़ना पड़ता था, इसी वजह से हिमा का स्टैमिना अच्छा बनता रहा, जिस वजह से वह ट्रैक पर भी बेहतर करने में कामयाब रहीं।
ऐथलेटिक्स को लेकर हमें सकारात्मक वातावरण बनाना होगा और इसकी पहली आजमाइश 2020 के टोक्यो ओलिंपिक में हिमा दास के साथ ही करनी होगी। क्योंकि उसने अपनी प्रतिभा एवं क्षमता का लौहा मनवाया है, उसने कठोर श्रम किया, बहुत कड़वे घूट पीये हंै तभी वह सफलता की सिरमौर बनी हैं। वरना यहां तक पहुंचते-पहुंचते कईयों के घुटने घिस जाते हैं। एक बूंद अमृत पीने के लिए समुद्र पीना पड़ता है।
पदक बहुतों को मिलते हैं पर सही खिलाड़ी को सही पदक मिलना खुशी देता है। ये देखने में कोरे पदक हंै पर इसकी नींव में लम्बा संघर्ष और दृढ़ संकल्प का मजबूत आधार छिपा है। राष्ट्रीयता की भावना एवं अपने देश के लिये कुछ अनूठा और विलक्षण करने के भाव ने ही अन्तर्राष्ट्रीय ऐथलेटिक्स में भारत की साख को बढ़ाया है। ऐथलेटिक्स की यह उपलब्धि दरअसल हिमा की उपलब्धि है, युवाओं की आंखों में तैर रहे भारत को अव्वल बनाने के सपने की जीत है। हिमा ने विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करके अपना रास्ता बनाया। दरअसल समाज में खेल को लेकर धारणा बदल रही है।
सरकार भी जागरूक हुई है। खेलों में ही वह सामर्थ्य है कि वह देश के सोये स्वाभिमान को जगा देता है, क्योंकि जब भी कोई अर्जुन धनुष उठाता है, निशाना बांधता है तो करोड़ों के मन में एक संकल्प, एकाग्रता का भाव जाग उठता है और कई अर्जुन पैदा होते हैं। अनूठा प्रदर्शन करने वाली हिमा भी आज माप बन गयी हैं और जो माप बन जाता है वह मनुष्य के उत्थान और प्रगति की श्रेष्ठ स्थिति है।