बुरे-से-बुरे समय में भी अपना धैर्य बनाए रखने वाले व्यक्ति ही परिस्थितियों को अपने वश में करते हैं तथा अपने ध्येय को प्राप्त करते हैं। ऐसे लोग आपत्ति में भी विचलित नहीं होते। हिन्दी के प्रसिद्धि कवि श्रीमाधव शुक्ल वीर रस का अभिनय करने के लिए भी प्रसिद्ध थे। स्वाभिमानी पुरुष तो वे थे ही। एक बार ऐसा हुआ कि स्वतंत्रता आंदोलन के सिलसिले में वे जेल में थे। जेल में ही उन्हें अत्यंत कारुणिक सूचना मिली कि उनके एकमात्र जामाता की छत से गिरकर मृत्यु हो गई है। इस घटना से कुटुम्ब पर वज्र ही टूट पड़ा। माधव शुक्लजी अत्यंत दुखी हुए पर वे जेल में होने की वजह से विवश थे। उनके शोक संतप्त परिवार की अत्यंत कारुणिक दशा सुनकर जब जेलर को उनके प्रति सहानुभूति हुई तो उन्हें समझाना चाहा कि वे सरकार से क्षमायाचना करके घर चले जाएँ और सबको धीरज बधाएँ, सांत्वना दें। जेलर की इस बात पर श्रीमाधव शुक्ल ने उत्तर दिया- ‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मैं हरिश्चंद्र और राणाप्रताप का अभिनय करने वाला व्यक्ति हूँ। भीषण आघात से विचलित होने वाला व्यक्ति नहीं। मैं क्षमा की याचना नहीं कर सकता।’
सच्चा ज्ञान क्या है?
सच्चा ज्ञान क्या है? इसकी खोज में एक राजा अपने सिपाहियों सहित वन की आरे निकल पड़ा, जहाँ एक ऋषि रहते थे। शाम का समय था। देखा, ऋषि तो नहीं हैं, लेकिन उनकी कुटिया के बगल में एक वृद्ध खेत में बीज बो रहा है। राजा ने उसके निकट आकर ऋषि के बारे में पूछा। उस वृद्ध ने कहा, ‘नाम तो मेरा ही है।’ तब राजा ने उनसे तीन प्रश्न किए- पहला, सबसे अच्छा मित्र कौन है? दूसरा, सबसे अच्छा समय कौन-सा है? और तीसरा, सबसे अच्छा काम कौन-सा है? ऋषि ने उत्तर न देकर उससे मदद करने को कहा। राजा बीज बोता रहा। एक घायल के कराहने की आवाज सुनाई पड़ी। ऋषि राजा को उसके निकट ले गए। जब उस व्यक्ति को होश आया तो राजा के चरणों में गिर पड़ा और क्षमा माँगने लगा। राजा को आश्चर्य हुआ कि यह कौन व्यक्ति है। यह राजा को मारने आया था, लेकिन सिपाहियों ने उसे घायल कर दिया था। उसके पुन: पूछने पर ऋषि ने कहा, ‘आपके प्रश्नों का उत्तर तो मिल गया, सबसे अच्छा मित्र आपके सामने खड़ा है, जो आपसे क्षमायाचना कर रहा है, सबसे अच्छा समय वर्तमान है और सबसे अच्छा कर्म उपस्थित कर्म है। यही सच्चे ज्ञान की खोज है।’
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