हिंदू धर्मशास्त्रों में धरती को मां के सदृश्य माना गया है और यही धरती मां सभी की शरणस्थली भी है। साथ ही साथ इस धरा में मौजूद संसाधन उपहार के रूप में समान रूप से सभी प्राणियों को मिलें हैं। न किसी को ज्यादा और न किसी को कम। इसके अलावा पृथ्वी किसी भी प्राणी के साथ किसी भी तरह का भेदभाव भी नहीं करती। न सामाजिक रूप से, न आर्थिक रूप से और न ही अन्य किसी रूप में। साथ में ही प्रकृति में उपलब्ध संसाधन जल, नदी, पहाड़, खनिज संपदा और वन पर सभी का समान अधिकार है, बिना किसी संवैधानिक और राजनीतिक हस्तक्षेप के और इन संसाधनों का उपयोग करके हम अपना सर्वांगीण विकास तो कर सकते हैं।
लेकिन अगर चाह भी लें, तो इन प्रकृति प्रदत्त बहुमूल्य सम्पदाओं में वृद्धि नहीं कर सकते। लेकिन इनके संरक्षण की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। मानवीय पहुंच में सौरमंडल में पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा ग्रह है जहां जीवन है, जहां पहाड़, झरने, नदी और तमाम जीव-जंतु पाएं जाते हैं। इतना ही नहीं सामंजस्य पूर्ण जीवन पृथ्वी पर व्यतीत करने के लिए इनमें आपसी तालमेल और मधुर समन्वय होना बेहद लाजिमी है। लेकिन मानव की बढ़ती भोग-विलासिता की इच्छा, लालच और लापरवाही ने न केवल दूसरे निर्दोष जीव-जंतुओं और प्राणियों का जीवन संकट में डाल दिया है, अपितु सम्पूर्ण धरा को ही काल के ग्रास में झोंक दिया है।
यहां यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज ब्लू प्लेनेट मानवीय लालसा और लापरवाही की वजह से ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण की चपेट से कराह रहा है। जो पृथ्वी मानवीय जीवन को आधार देने का कार्य सैकड़ों सदियों से करती आई है, वह मां रूपी धरती आज अपने बच्चों से पुकार लगा रही, कि वह उसे बचा लें। तो यह स्थिति काफी विकट और भयावह है। वर्तमान दौर में हमारी धरती कई रूपों में दवाब महसूस कर रहीं। जनसंख्या की बढ़ोतरी ने प्राकृतिक संसाधनों पर अनावश्यक बोझ बढ़ा दिया है। अत: अभी भी वक्त है कि जीव-जंतुओं के संरक्षण की दिशा में आगे बढ़ने के साथ-साथ अक्षय ऊर्जा से चलने वाले वाहन और सार्वजनिक परिवहन का उपयोग शुरू किया जाए। विदेशों की तर्ज पर साइकिल का उपयोग कर काम धंधे निपटाएं जाएं। प्लास्टिक का प्रयोग कम से कम किया हो। पौधारोपण को बढ़ाया जाए। हर व्यक्ति उक्त प्रयास अपने स्तर पर करे तब इससे पूरी अवाम भी पृथ्वी को बचाने के लिए प्रोत्साहित होगी। नहीं तो विकास की चकाचौंध में विनाश भी छिपा होता, यह तो सर्वविदित है।
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