2015 में फ्रांस की राजधानी पेरिस में संपन्न जलवायु शिखर सम्मेलन में, तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करते हुए कहा था कि वह कार्बन उत्सर्जन की समस्या को पैदा करने में अपनी भूमिका को स्वीकार करते हैं और इससे निपटने के लिए अपनी जिम्मेदारी को लेकर वह सजग भी है।
लेकिन, वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने आश्चर्यजनक रूप से पेरिस जलवायु समझौते से हटने का ऐलान कर दिया है। उनका मानना है कि 2015 में जलवायु परिवर्तन को लेकर हुआ यह वैश्विक समझौता अमेरिका के साथ न्याय नहीं करता। उनका विश्वास है कि पेरिस समझौता चीन तथा भारत जैसे देशों को फायदा पहुंचाता है। लिहाजा, उन्होंने पेरिस समझौते से हटने का फैसला किया है। ट्रंप के इस अनोखे रवैये की वजह से विश्वभर में उनकी आलोचना हो रही है।
हालांकि, यह पहली दफा नहीं है, जब जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अमेरिका का रवैया एकपक्षीय व हतप्रभ भरा रहा है। इससे पहले भी, अमेरिका क्योटो प्रोटोकॉल (1997) पर अपनी भूमिका से मुकर चुका है। गौरतलब है कि तब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने क्योटो संधि पर हस्ताक्षर किए थे मगर, क्लिंटन के बाद राष्ट्रपति बने जॉर्ज बुश ने इसे मंजूरी देने से मना कर दिया था।
एक बार फिर, मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने पूर्व राष्ट्रपति ओबामा की पर्यावरणीय नीतियों को दरकिनार कर अमेरिका की दादागिरी तथा ‘अमेरिका फर्स्ट’ वाली मानसिकता को उजागर करने की कोशिश की है। जलवायु चुनौतियों से निपटने के लिए, वैश्विक एकजुटता का होना अत्यंत आवश्यक है। लेकिन, सवाल यह है कि अमेरिका, पेरिस जलवायु समझौते को स्वीकारने से मुकर क्यों रहा है?
जबकि, विकसित देशों की सततपोषणीय विकास से इतर, एकाधिकारवादी औद्योगिक विकास की चाह ही जलवायु परिवर्तन के लिए प्रमुख रुप से जिम्मेवार रही है। दरअसल, ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए पेरिस सम्मेलन के अंतर्गत विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों की सहायतार्थ 2020 तक 100 बिलियन डॉलर का सलाना फंड बनाने की बात कही गई थी।
लेकिन, अब विकसित देशों का कहना है कि केवल विकसित ही नहीं, अपितु विकासशील देशों को भी इसमें योगदान देना होगा। डोनाल्ड ट्रंप ने आरोप लगाया है कि पेरिस समझौता, अमेरिका की संपदा को दूसरे देशों में बांट रहा है। ट्रंप को डर है कि अमेरिका अगर इस समझौते को स्वीकार करता है तो, वहां 27 लाख नौकरियों का संकट उत्पन्न हो सकता है।
ट्रंप ने, भारत के संबंध में यहां तक कह दिया कि भारत को उत्सर्जन कम करने के वास्ते करोड़ों रुपये बतौर सहायता मिलने वाले हैं। अगर, ट्रंप की आशंकाओं को कुछ क्षण के लिए अपनी जगह सही मान लिया जाए फिर भी, ट्रंप द्वारा ऐतिहासिक पेरिस समझौते को पूरी तरह नकार देना समझ से परे है।
गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने की दिशा में पेरिस समझौते का विशिष्ट महत्व रहा है। इसमें, वैश्विक तापमान को कम करना, कार्बन उत्सर्जन में कमी लाना और अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन बनाकर सौर ऊर्जा पर बल देने तथा हर पांच साल में प्रत्येक देश की भूमिका की प्रगति की समीक्षा करने जैसे महत्वपूर्ण लक्ष्य शामिल रहे हैं। सत्ता परिवर्तन के बाद जिस तरह, अमेरिका ने अपना रंग बदला है, उससे, जलवायु परिवर्तन से निपटने के उद्देश्यों को आंशिक झटका जरुर लगा है।
जलवायु परिवर्तन पर दो ध्रुवों पर बंटे विश्व को एक मंच पर लाने का एक बड़ा प्रयास 2015 के पेरिस सम्मेलन में किया गया। इस समझौते की प्रमुख बात यह रही थी कि इसमें जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने की जिम्मेदारी केवल विकसित या विकासशील नहीं अपितु, सभी देशों पर डाली गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समझौते के बारे में उस वक्त कहा था कि ‘पेरिस समझौते में ना कोई विजेता है और ना ही किसी की हार हुई है, पर्यावरण को लेकर न्याय की जीत हुई है और हम सब एक हरे भरे भविष्य पर काम कर रहे हैं।’
पेरिस समझौते के तहत 190 से अधिक देशों ने वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का लक्ष्य रखा है। तापमान का यह स्तर इसलिए महत्व रखता है, क्योंकि वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि 2 डिग्री से ऊपर के तापमान से धरती की जलवायु में बड़ा बदलाव हो सकता है, जिसके असर से ग्लेशियर का पिघलना, समुद्र तल की ऊंचाई बढ़ना, सूखा, दावानल और बाढ़, भूस्खलन जैसी आपदाएं दस्तक दे सकती हैं। जलवायु परिवर्तन इस सदी की प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय समस्या रही है।
विश्व बैंक के मुख्य अधिकारी रहे अर्थशास्त्री सर निकोलस स्टर्न ने जलवायु परिवर्तन के नतीजों की तुलना दो विश्व युद्धों के सामाजिक और आर्थिक परिणामों तथा बीसवीं सदी की आर्थिक मंदी के रुप में की थी। यह सच्चाई है कि वैश्विक ऊष्मण की वजह से, पृथ्वी पर उपस्थित सभी सजीवों का जीवन-यापन करना कठिन हो गया है।
वैश्विक ऊष्मण जैव-विविधता का सबसे बड़ा दुश्मन है। वैश्विक ऊष्मण की वजह से ही प्राकृतिक मौसम तथा जलवायु चक्र विच्छेद हो रहे हैं, जिस कारण पृथ्वी का कुछ हिस्सा, प्रतिदिन बाढ़, सूखा, भूस्खलन व अन्य जानलेवा आपदाओं से प्रभावित रहता है। इस वजह से, भौतिक तथा मानव संसाधन का बड़े पैमाने पर नुकसान भी हो रहा है।
दुखद यह है कि पर्यावरण संरक्षण पर आयोजित तमाम सम्मेलनों तथा तरह-तरह के एक दिवसीय वार्षिक आयोजन के बावजूद, वायुमंडल के औसत तापमान में कमी आने की बजाय, बढ़ोतरी ही हो रही है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछली सदी के दौरान, धरती का औसत तापमान 1.4 फारेनहाइट बढ़ चुका है। जबकि, अगले सौ साल के दौरान, इसके बढ़कर 2 से 11.5 फारेनहाइट होने के अनुमान हैं।
विडंबना यह है कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर विकसित देशों का रवैया सदैव एकपक्षीय, ढुलमुल व स्वार्थ भरा रहा है। 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल के बाद से ही, कार्बन उत्सर्जन को लेकर विकसित देशों ने अपनी भूमिका से हटते हुए, विकासशील देशों पर दबाव बनाना शुरू कर दिया था। जलवायु परिवर्तन एक ऐसा विषय है, जिससे पूरा विश्व समान रुप से जुड़ा है।
बावजूद इसके, इस संवेदनशील मुद्दे पर एकजुटता की बजाय, वैश्विक स्तर पर राजनीति हो रही है। समझना होगा कि जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न ग्लोबल वार्मिंग, बाढ़, सूखा जैसी आपदाओं की विभीषिका का दंश कोई एक देश या महादेश नहीं, अपितु समस्त मानव समाज झेल रहा है।
जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। भारत ने कार्बन उत्सर्जन में 2030 तक 33 से 35 फीसदी तक कटौती का एलान कर इस दिशा में पहल भी कर दी है। जरूरत इस बात की है कि पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अपनी एकजुटता दिखाए। ऊर्जा के परंपरागत स्रोतों पर अत्यधिक निर्भरता की बजाय सौर, पवन, भूतापीय तथा जल ऊर्जा का विकास करना पर्यावरण संरक्षण की दिशा में राहत योग्य बात होगी।
इसके अलावा, विभिन्न देशों को अपने नागरिकों के लिए एक साझा कार्यक्रम तैयार कर पर्यावरण संरक्षण के निमित्त अपनी प्रतिबद्धता दिखानी होगी। सकारात्मक पहल कर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटा जा सकता है। संसार की आठ अरब आबादी पूरी जिम्मेदारी के साथ छोटी-छोटी बातों पर अमल कर जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है।
–सुधीर कुमार
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