सन् 1975 की बात है। एक बार पूजनीय परम पिता जी शाम की मजलिस समाप्त करके पानी वाली डिग्गी की तरफ इशारा करके सेवादारों को कहने लगे, ‘‘पानी की डिग्गी के पास र्इंट के टुकड़े पड़े हैं, उनको उठाकर काल-बुत के पास वाली जगह पर रख दो।’’ पूजनीय परम पिता जी के हुक्मानुसार मैं भी ईटों से भरे टोकरे उठाकर ले जाने लगा। इसके पश्चात पूजनीय परम पिता जी ने फरमाया, ‘‘बेटा, जो ये सेवा करेगा, उसकी जायज इच्छा पूरी होगी।’’ पूजनीय परम पिता जी के वचन सुनकर मैं मन ही मन में सोच रहा था कि मेरे पास तो मालिक का दिया सब कुछ है। मैं मालिक से क्या मांगू? सरकारी नौकरी है, गाड़ी है, बड़ा घर है। फिर मैंने सोचा कि अगर मेरा नजर का चश्मा उतर जाए तो अच्छा होगा। मैंने यह बात मन में ही सोची और सेवा करता रहा। सतगुरू जी की रहमत से धीरे-धीरे मुझे बिना चश्में के साफ दिखने लगा। लगभग 14-15 दिन के बाद तो मैंने चश्मा बिल्कुल ही उतार दिया। यही नहीं उसके बाद कभी भी मुझे चश्मा लगाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। यह मालिक की रहमत का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
–सचखंड वासी श्री डीडी चावला, जींद (हरियाणा)
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