डॉ. सुशील कुमार सिंह वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार
सर्वांगीण विकास: सर्वोदय सौ साल पहले 1922 में उभरा एक शब्द है, जो महात्मा गांधी दर्शन से उपजा है। मगर इसकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है। एक ऐसा विचार जिसमें सर्वभूत हितेष्ता: को अनुकूलित करता है, जिसमें सभी के हितों की भारतीय संकल्पना के अलावा सुकरात की सत्य साधना और रस्किन के अंत्योदय की अवधारणा मिश्रित है। सर्वोदय सर्व और उदय के योग से बना शब्द है जिसका संदर्भ सबका उदय व सब प्रकार के उदय से है। यह सर्वांगीण विकास को परिभाषित करने से ओतप्रोत है। आत्मनिर्भर भारत की चाह रखने वाले शासन और नागरिक दोनों के लिए यह एक अन्तिम सत्य भी है।
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गांधी दर्शन, समावेशी विकास और सुशासन का गहरा सम्बंध है। यदि समावेशी विकास पटरी पर है तो सुशासन का स्पीड और स्केल में रहना तय है, जो गांधी दर्शन में निहित सर्वोदय से सुगम हो सकता है। मौजूदा वक्त सुशासन की उस धारा को तीव्र करने से युक्त होना चाहिए जहां से सु-जीवन प्रखर रूप ले ले। तब कहीं जाकर गांधी दर्शन को नया उठान मिलेगा। इसके लिए केवल परम्परागत नहीं बल्कि सरकार को उत्प्रेरित होना होगा। उत्प्रेरित सरकार जो अपनी भूमिका ‘नाव खेने’ की जगह ‘स्टेयरिंग’ संभालने के रूप में बदल लेती है। जब सड़क खराब हो तो ब्रेक और एक्सेलेरेटर पर कड़ा नियंत्रण और जब सब कुछ अनुकूल हो तो सुगम और सर्वोदय से भरी यात्रा निर्धारित करता है। जाहिर है ऐसी शासन पद्धति में लोक कल्याण की मात्रा में बढ़त और लोक सशक्तिकरण के आयामों में उभार को बढ़ावा मिलता है।
सु-जीवन कोई आसान व्यवस्था नहीं है यह बड़े मोल और बड़े काज से सुनिश्चित होगा। जिसकी कदर इन दिनों कमाई और महंगाई के बीच अंतर बढ़ा है। वह सुजीवन के बीच और गांधी के सर्वोदय के लिए शुभ संकेत तो नहीं देता है। सरकार जनहित में कितना कदम बढ़ा चुकी है। यह तब तक आभास नहीं किया जा सकता जब तक कदम सही से रखे न गये हो। इस बात का सभी समर्थन करेंगे कि 21वीं सदी के इस 22वें साल पर तुलनात्मक विकास का दबाव अधिक है क्योंकि इसके पहले का वर्ष महामारी के चलते उस आईने की तरह चटक गया था जिसमें सूरत बिखरी-बिखरी दिख रही है। यदि इसे एक खूबसूरत तस्वीर में तब्दील किया जाये तो ऐसा सर्वोदय और सशक्तिकरण के चलते होगा जिसकी बाट बड़ी उम्मीद से जनता जोह रही है, जो सर्वोदय और सुशासन पर पूरी तरह टिका है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में गांधी दर्शन जिस दृष्टि से जांचा और परखा जाता है, उसमें बहुआयामी दृष्टिकोण न केवल संलिप्त हैं बल्कि बुनियादी और आसान जीवन के लक्षण भी निहित हैं। गांधी के लिए यह समझना आसान था कि भारतीयों को आने वाली सरकारों से क्या अपेक्षा रहेगी और शायद वे इस बात से भी अनभिज्ञ नहीं थे कि सरकारें छल-कपट से मुक्त नहीं रहेंगी। इसलिए उन्होंने कहा था कि मजबूत सरकारें असल में जो करते हुए दिखाती हैं वैसा होता नहीं है।
सर्वोदय सौ साल पहले 1922 में उभरा एक शब्द है, जो गांधी दर्शन से उपजा है। मगर इसकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है। एक ऐसा विचार जिसमें सर्वभूत हितेष्ता: को अनुकूलित करता है, जिसमें सभी के हितों की भारतीय संकल्पना के अलावा सुकरात की सत्य साधना और रस्किन के अंत्योदय की अवधारणा मिश्रित है। सर्वोदय सर्व और उदय के योग से बना शब्द है जिसका संदर्भ सबका उदय व सब प्रकार के उदय से है। यह सर्वांगीण विकास को परिभाषित करने से ओतप्रोत है। आत्मनिर्भर भारत की चाह रखने वाले शासन और नागरिक दोनों के लिए यह एक अन्तिम सत्य भी है। समसमायिक विकास की दृष्टि से देखें तो समावेशी विकास के लिए सुशासन एक कुंजी है लेकिन सर्वज्ञ विकास की दृष्टि से सर्वोदय एक आधारभूत संकल्पना है। बेशक देश की सत्ता पुराने डिजाइन से बाहर निकल गयी है पर कई चुनौतियों के चलते समस्या समाधान में अभी बात अधूरी है। सुशासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है, जिससे लोक कल्याण को बढ़त मिलती है।
तत्पश्चात नागरिक सशक्तिकरण उन्मुख होता है। गौरतलब है बेरोजगारी, बीमारी, रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा जैसी तमाम बुनियादी समस्याएं अभी भी चोटिल हैं। गरीबी और भुखमरी की ताजी सूरत भी स्याह दिखाई देती है। स्वतंत्रता के बाद 15 मार्च 1950 को योजना आयोग का परिलक्षित होना तत्पश्चात प्रथम पंचवर्षीय योजना का कृषि प्रधान होना और 7 दशकों के भीतर ऐसी 12 योजनाओं को देखा जा सकता है, जिसमें गरीबी उन्मूलन से लेकर समावेशी विकास तक की भी पंचवर्षीय योजना शामिल है। बावजूद इसके देश में हर चौथा व्यक्ति अशिक्षित और इतने ही गरीबी रेखा के नीचे हैं, जो गांधी दर्शन के लिहाज से उचित करार नहीं दिया जा सकता।
गांधी के लघु और कुटीर उद्योग की अवधारणा का पूरा परिप्रेक्ष्य इसमें प्रासंगिक होते देखा जा सकता है। जब हम समावेशी विकास की बात करते हैं तब हम गांधी विचारधारा के अधिक समीप होते हैं और जब सतत विकास को फलक पर लाने का प्रयास होता है तो यह पीढ़ियों को सुरक्षित करने वाला गांधी दर्शन उमड़ जाता है।
सामाजिक-आर्थिक प्रगति सर्वोदय का प्रतीक कहा जा सकता है। इसी के भीतर समावेशी विकास को भी देखा और परखा जा सकता है। मेक इन इण्डिया, स्किल इण्डिया, डिजिटल इण्डिया, स्टार्टअप इण्डिया और स्टैण्डअप इण्डिया जैसी योजनाएं भी एक नई सूरत की तलाश में है। जिस तरह अर्थव्यवस्था और व्यवस्था को चोट पहुंची है उसकी भरपाई आने वाले दिनों में तभी सम्भव है जब अर्थव्यवस्था नये डिजाइन की ओर जायेगी। कहा जाये तो ठहराव की स्थिति से काम नहीं चलेगा। सवाल तो यह भी है कि क्या बुनियादी ढांचे और आधारभूत सुविधाओं से हम पहले भी भली-भांति लैस थे। अच्छा जीवन यापन, आवासीय और शहरी विकास, बुनियादी समस्याओं से मुक्ति और पंचायतों से लेकर गांव तक की आधारभूत संरचनायें परिपक्व थी। इसका जवाब पूरी तरह न तो नहीं पर हां में भी नहीं दिया जा सकता। कुल मिलाकर विकास के सभी प्रकार और सर्वज्ञ विकास और सब तक विकास की पहुंच अभी अधूरी है और इसे पूरा करने का दबाव आगे आने वाले वर्षों पर अधिक इसलिए रहेगा क्योंकि घाटे की भरपाई तो करनी ही पड़ेगी।
विकास कोई छोटा शब्द नहीं है भारत जैसे देश में इसके बड़े मायने हैं। झुग्गी-झोपड़ी से लेकर महलों तक की यात्रा इसी जमीन पर देखी जा सकती है और यह विविधता देश में बरकरार है ऐसे में विकास की विविधता कायम है। यह जरूरी नहीं कि महल सभी के पास हो पर यह बिल्कुल जरूरी है कि बुनियादी विकास से कोई अछूता न रहे। जब ऐसा हो जायेगा तब गांधी का सर्वोदय होगा और तब लोक सशक्तिकरण होगा और तभी उत्प्रेरित सरकार और सुशासन से भरी धारा होगी।
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