कहानी : वीरता पुरस्कार

Gallantry-award

फौजी संतराम के घर से पत्र आया था। एक पत्र ही तो है जो दूर देश की सीमा पर डटे प्रहरियों को उनके घर वालों से जोड़े रखता है। ये पत्र जब खुलते हैं तब कभी फौजियों के चेहरे खुशी से चमक उठते हैं, कभी दुख में डूब जाते हैं।

फौजी संतराम को अक्सर उसकी पत्नी और उसके पिता ही पत्र लिखते थे। पहली बार उसके बेटे मनु ने पत्र लिखा था। बेटे ने लिखा था- पापा, आप स्वस्थ ही होंगे। इधर दादाजी की तबियत अक्सर खराब रहती है। मम्मी ठीक है। घर के पीछे वाला कमरा एकदम जर्जर हो गया है। इस बार की बारिश में वह ढह जाएगा। परीक्षा में मेरे अच्छे नंबर आए हैं। पापा, मेरी स्कूल ड्रेस कई जगह से फट गई है। इस बार आप घर आओगे तो नई ड्रेस दिलाना। हां, जूते भी फट गए हैं, वो भी नए चाहिए। पापा, जब आओगे तो निक्की बहन के लिए खिलौने वाली बंदूक और टैंक लेते आना। आप जल्दी आना पापा। आपका बेटा, मनु।

संतराम सोचने लगा, मनु होशियार हो गया है। 9 साल का है और चिट्ठी लिख लेता है। इस बार जरूरी छुट्टी लूंगा। निक्की के लिए खिलौने वाली बंदूक और टैंक लेकर जाऊंगा तो वह बहुत खुश होगी। मनु को भी स्कूल ड्रेस और जूत दिलवाकर लौटूंगा।
‘संतराम, भोजन हो गया?’ एक फौजी मित्र ने पूछा। संतराम बोला, ‘बस, अभी खाना खाने बैठ रहा हूं।’
‘जल्दी कर भाई। रात के साढ़े सात बज चुके हैं और आठ बजे आॅपरेशन पर जाना है।’ संतराम के साथी फौजी राम सिंह ने कहा। संतराम जल्दी-जल्दी खाना खाने लगा। भोजन करते हुए संतराम सोच रहा था, माहौल ठीक नहीं है। आए दिन दोनों तरफ से गोलीबारी होते रहती है। पता नहीं दोनों मुल्क की चाहत क्या है? दोनों तरफ के जवान मर रहे हैं। न रात को आराम, न दिन को चैन। दोनों मुल्क शांति से रहते तो कितना अच्छा होता।

‘संतराम, तुम तैयार हो न?’ मेजर चंद्रकांत की कड़क आवाज सुनाई दी। ‘अभी आया सर।’ कहते हुए संतराम ने अपनी राइफल, पट्टा और टार्च वगैरह उठा ली। ‘आज हमारी ड्यूटी चौकी नंबर तीन पर है। उस चौकी में हमले की साजिश रची गई है। वह चौकी बहुत खास है, इसलिए किसी कीमत पर उसे नष्ट नहीं होने देना है।’ मेजर चंद्रकांत ने फौजियों को सावधान किया।
फौजियों और अफसरों की टोली गंतव्य चौकी नंबर 3 की ओर बढ़ गई। जैसे ही वहां उनका पहुंचना हुआ, दूसरी तरफ से गोलियां चलने लगीं। तड़…तड़…तड़… की आवाज गूंजने लगी। तीन फौजियों को गोलियां लग गई। देश की हिफाजत की खातिर वे शहीद हो गए। देर तक गोलीबारी होती रही।

संतराम के साथ तीन जवान और थे। दुश्मन की एक गोली संतराम के पास खड़े साथी फौजी किशन सिंह को लगी जिससे उसने दम तोड़ दिया। अपने साथी को अपनी आंखों के सामने तड़पते हुए दम तोड़ता देख संतराम का खून खौल उठा। अचानक उसके अंदर जोश भर गया। उसने अपनी जान की परवाह न करते हुए दौड़कर फायरिंग की। दुश्मन के 5 फौजी ढेर हो गए। अब दुश्मन का केवल एक फौजी बचा था। वह चट्टान की ओट में दनादन गोलियों की बौछार किए जा रहा था।

संतराम चतुर फौजी था। उसने एक पेड़ पर चढ़कर उस पर तीन फायर कर दिए जो निशाने पर लगे थे और वह दुश्मन भी तड़पकर शांत हो गया। संतराम उसकी लाश को थोड़ी देर तक घूरता रहा। फिर उसके करीब जाकर उसे उलट-पुलटकर देखने लगा और फिर बुदबुदाया, मेरी ही उम्र का है।
संतराम ने उसकी तलाशी ली। शर्ट की जेब से उसका परिचय पत्र हाथ लगा। टार्च की रोशनी में पढ़ा। उस पर लिखा था- वहीद खान, सिपाही, 33 लाइट इंफैंटरी।

संतराम ने उसकी पैंट की जेब टटोली तो मुड़ा हुआ एक कागज मिला। कागज को खोलते हुए बोला, ‘यह तो कोई चिट्ठी लगती है। चलो, पढ़ते हैं क्या लिखा है इसमें।’ कहते हुए उसने अपने पास खड़े एक साथी को टार्च पकड़ाई। संतराम ने चिट्ठी पढ़नी शुरू की- ‘अब्बूजान, अस्सलाम अलैकुम। घर में सभी खैर से हैं। मैं 8वीं जमात का इम्तिहान देकर 9वीं जमात में चली गई हूं और नईम 6वीं जमात में पहुंच गया है। हम दोनों का स्कूल ड्रेस बदल गया है। नई ड्रेस चाहिए। घर में पैसे नहीं हैं। अम्मी फटे-पुराने सलवार और बुरके से काम चला रही हैं। दादू को दवाई की जरूरत है पर वह खरीद नहीं रहे हैं। कहते हैं दवाई के लिए पैसा कहां से आएगा।

किराना दुकान वाले ने राशन वगैरह देना बंद कर दिया था। उधारी बहुत बढ़ गया था। मजबूरी में दादू ने एक बकरी बेचकर कुछ उधार चुकता किया, तब घर में खाना बनने लगा है। अब्बू, आप जल्दी घर आइए। पिछली ईद पर आप नहीं आए थे तो घर में किसी को अच्छा नहीं लगा। हमने उस दिन सेवइयां भी नहीं बनाई थीं। नईम बहुत रोया था। अब्बू, इस बार जल्दी घर आइए। साथ में मेरे और नईम के लिए नए कपड़े, मोजे-जूते जरूर लाना। अम्मी के लिए सलवार और बुरका, दादू के लिए बंगाली-पयजामा भी लेते आना।’
‘आपकी बेटी, रेहाना।’

चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते संतराम की आंखों से आंसू गिरने लगे थे। उसके और वहीद के घर के हालात एक जैसे थे। उसे लगा रहा था, उसके हाथों मारा गया फौजी दुश्मन नहीं, भाई था। काश, वह इस फौजी के घर सारी चीजें पहुंचा सकता और किराना दुकान वाले का उधार भी चुका सकता।
दूसरे दिन अखबारों में बड़े-बड़े अक्षरों में खबर छपी थी कि सतनाम राइफल्स के जवान संतराम की बहादुरी से दुश्मन की सेना मिट्टी में मिल गई। अखबार का पहला पेज संतराम की वीरता के गुणों से भरा था। टीवी चैनलों में उसकी बहादुरी के कसीदे गढ़े जा रहे थे।

पूरा देश संतराम पर गर्व कर उसकी जय-जयकार कर रहा था पर इधर संतराम खुद को हत्यारा समझ दुखी था। आदमी को मारना अपराध होता है और मारने वाले को सजा होती है पर आदमी मारने के कारण ही संतराम की प्रशंसा हो रही थी। उसे पुरस्कार प्रदान करने का ऐलान हो गया था लेकिन संतराम खुद को सजा के लायक मान रहा था।

संतराम ने आम आदमी नहीं मारे थे। दुश्मन फौजियों को मारने पर उसे राष्ट्रपति से वीरता पुरस्कार देने का ऐलान हुआ। 26 जनवरी को सम्मान समारोह में कुर्सी पर बैठा संतराम दोनों देशों के प्रमुख कर्ताधतार्ओं के बारे में सोच रहा था-‘सरहद पर डटे जवान कितने कष्ट झेलकर देश की रक्षा कर रहे हैं। उनके परिवार की स्थिति दयनीय है। बेचारे जवान अपने परिवार से मिलने के लिए तरस जाते हैं। रोज सरहद पर बेगुनाह जवान मारे जाते हैं। देश के कर्ताधर्ता एयरकंडीशन लगे कमरों में आराम से बैठकर उन जवानों को शहीद का खिताब देते हैं। क्या बिगाड़ा है इन बेगुनाह जवानों ने किसी का। दुनिया ने समय के साथ बहुत तरक्की कर ली है। पर शांति वाली तरक्की कहीं नहीं है। दो देश आपस में लड़कर अपने जवानों को मौत की मुंह में ढकेलते बस हैं, और कुछ हासिल नहीं होता।’

संतराम सोच में डूबा था, तभी मंच से उसका नाम पुकारा गया। संतराम ने वह पुरस्कार और पदक लिया तो जरूर पर उन्हें लेते समय वह मन ही मन बड़बड़ा रहा था, ‘मुझे पुरस्कार नहीं, सजा दो। मैंने बेगुनाह जवानों ही हत्या की है। अपने सरीखे, भाई समान फौजियों को मौत के घाट उतारा है।’

-नरेंद्र देवांगन

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