जब भी सत्र की शुरूआत होती है तब इस बात की सुगबुगाहट जोर पकड़ती है कि क्या देश के नागरिकों की उम्मीदों पर माननीय खरे उतरेंगे। कोरोना की काली छाया के बीच संसद के मानसून सत्र के आंकड़े यह बताते हैं कि 167 फीसद कार्य उत्पादकता के साथ लोकसभा ने इतिहास रच दिया। माना जा रहा है कि लोकसभा के किसी भी सत्र में यह सर्वाधिक उपजाऊ सत्र रहा है। गौरतलब है 14 सितम्बर से 24 सितम्बर के बीच 10 दिवसीय मानसून सत्र में 25 विधेयक पारित किये गये साथ ही कई और नये रिकॉर्ड बने। 21 सितम्बर को तो लोकसभा की उत्पादक क्षमता 234 फीसद आंकी गयी जो अब तक के किसी भी सत्र के एक दिन की कार्यवाही में सर्वाधिक है। इसके पहले 8वीं लोकसभा के तीसरे सत्र में लोकसभा की कार्य उत्पादकता 163 फीसद देखी जा सकती है। हालांकि यह सत्र 1 अक्टूबर तक चलना था मगर कोरोना के कहर के चलते इसे बीच में ही समाप्त कर दिया गया।
15वीं और 16वीं लोकसभा की तुलना में इस सत्र में लगभग दोगुने सदस्यों ने अपने प्रश्न रखे और 99 प्रतिशत विशयों पर जवाब भी दिये गये। हालांकि राज्यसभा 104 प्रतिशत उत्पादकता के साथ अपनी श्रेष्ठ गुणवत्ता को बनाये रखने में कामयाब रहा। मगर विभिन्न मुद्दों पर व्यवधान के चलते यहां घण्टों समय भी बर्बाद हुआ। खास यह भी है कि इससे पहले राज्यसभा में काम-काज का कुल प्रतिशत 96 फीसद रहा है। वर्तमान मानसून सत्र की उत्पादकता यह इंगित करती है कि सदस्यों ने मानसिक रूप से यह तैयारी की थी कि केवल उत्पादन पर जोर देना है न कि समय नश्ट करना है। वैसे यदि देश की सदन हर बार इसी क्षमता के साथ उत्पादन दे तो देश जो मीलों पीछे है वह कोसों आगे हो जायेगा। हालांकि किसानों से जुड़े विधेयक के मामले में सदन के अंदर और बाहर माहौल गरम बना रहा। फिलहाल किसानों को लेकर जो बवाल मचा उसमें मोदी सरकार से एक मंत्री का इस्तीफा और 8 राज्यसभा सदस्यों के निलंबन के लिए भी यह सत्र जाना जायेगा।
संसद का मानसून सत्र जिस तेजी से समाप्त हुआ उसे देखते हुए यह अंदाजा लगाना आसान है कि कोरोना के भय से सदन भी मुक्त नहीं थे। सत्र के दौरान कोविड प्रोटोकॉल का बाकायदा ध्यान था। सांसदों, उनके परिजनों, निजी स्टाफ के साथ लोकसभा अधिकारियों एवं कर्मचारियों और मीडियाकर्मी समेत 8 हजार से अधिक लोगों का कोविड टेस्ट किया गया था। 10 दिवसीय इस सत्र में 5 घण्टे कोरोना पर चर्चा हुई। वास्तुस्थिति यह है कि भले ही मानसून सत्र रिकॉर्ड उत्पादकता के साथ समापन लिया हो पर कोरोना की बाढ़ कब थमेगी इसका किसी को अंदाजा नहीं।
गौरतलब है कि मंत्रिमण्डल में जून 2020 में कृशि से सम्बंधित तीन अध्यादेश पारित किये थे कृशि उपज, व्यापार और वाणिज्य (संवर्द्धन और सुविधा) और किसानों (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) का मूल्य आश्वासन का अनुबंधन समेत आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश 2020 शामिल है। जिसे इस सत्र में पारित कर अधिनियम का रूप दिया जा रहा है जिस पर अभी राश्ट्रपति की अनुमति बाकी है। खास यह भी रहा कि अहम विपक्षी दलों के बहिश्कार के बावजूद तीसरा कृशि सुधार से जुड़ा अहम बिल इसेन्शियल कॉमोडिटी बिल समेत 7 बिल पारित करा लिये। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष मेडिकल चेकअप के चलते मानूसन सत्र शुरू होने से पहले ही विदेश चले गये थे और वापसी सत्र समाप्ति के एक दिन पहले हुई।
नये बिल से पहले देश में किसान अपने उत्पाद कृशि उपज मण्डी में लाइसेंसधारी व्यापारियों को ही बेच सकते थे। यहां व्यापारियों द्वारा किसानों के शोशण की सम्भावना व्याप्त रहती थी। सरकार यह समझाने का प्रयास कर रही है कि इस कानून के चलते पूरा देश ही किसानों के लिए बाजार हो जायेगा और व्यापारियों और आढ़तियों का एकाधिकार भी समाप्त हो जायेगा। ध्यान्तव्य हो पहले की मण्डियों में किसान लाइसेंसधारी व्यापारियों को ही अपनी उपज बेचता था। अब वह किसी को भी बेच सकता है मसलन मण्डी, कोल्ड स्टोरेज, गोदाम, संग्रह केन्द्रों व कारखानों समेत पूरा भारत। साफ है वन नेशन, वन मार्केट का लक्ष्य यहां प्रकट होता है।
सरकार कुछ भी कहे विरोधी इसे किसानों के विरोध में लाया गया कानून मानते हैं। वैसे यह पहली बार नहीं है जब मोदी सरकार किसानों को लेकर कोई विधेयक लायी है। साल 2015 के शीत सत्र की समाप्ति के तुरन्त बाद सरकार भू-अधिग्रहण अध्यादेश लायी थी और उसे सदन में पारित नहीं करा पायी और यह अध्यादेश तीन बार लाया गया। मगर मोदी सरकार की विपक्ष के आगे एक न चली। हालांकि उस समय राज्यसभा में विरोधियों का ही बोलबाला था। फिलहाल प्रचण्ड बहुमत वाली मोदी सरकार की राज्यसभा में स्थिति अब इतनी खराब नहीं है। ऐसे में विरोध के बावजूद सरकार फ्रण्ट फुट पर रहती है और विरोधी संसद से सड़क तक केवल शोरगुल ही कर पा रहे हैं।
मई 2014 से मोदी शासन चल रहा है और मई 2019 से दूसरी पारी जारी है। देखा जाय तो बजट, मानसून और शीत सत्र समेत तीन सत्र साल में होते हैं और हर सत्र जनता की आंखों में एक नई उम्मीद पनपाता है। उसी क्रम में 2020 का यह मानसून सत्र भी शामिल है इसकी सफलता दर को देखते हुए लगता है कि कोरोना की काली छाया के बीच हमारे माननीय कहीं अधिक सतर्क हो गये थे। फलस्वरूप उत्पादन क्षमता में रिकॉर्ड तोड़ वृद्धि देखी जा सकती है। कानूनों की फहरिस्त यह बताती है कि देश के नागरिक के प्रति सरकार चिंतित है। किसानों से सम्बंधित विधेयक, सामाजिक सुरक्षा संहिता, औद्योगिक सम्बंध संहिता तथा उपजीविकाजन्य सुरक्षा, स्वास्थ एवं कार्य दशा आदि इस बात को पुख्ता करते हैं। हालांकि इसी क्रम में बैंकिंग रेगुलेशन सहित टैक्स एवं अन्य से जुड़े विधेयक को देखा जा सकता है। इसी दौरान सरकार ने कुछ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को भी बढ़े हुए क्रम में घोशित किया था।
सबके बावजूद एक कसक यह है कि कोरोना के चलते करोड़ों का कारोबार बर्बाद हुआ है और करोड़ों के हाथ खाली हैं। बेरोजगारी का मुद्दा भी सड़क पर चित्तकार मार रहा है। दिन-प्रतिदिन बेचैनी बढ़ती जा रही है। इन सबको लेकर सदन में कोई चिन्ता नहीं दिखाई दी। इसमें कोई शक नहीं सरकार जनता के मन और मत से बनी होती है मगर काफी हद तक मजबूत सरकारें अपने मन का करती हैं। लोकतंत्र में मत एक बार देकर जनता 5 साल के लिए दूसरों को उनके बारे में सोचने का लाईसेंस दे देती है। मगर वही जनता जब अहित की स्थिति में उन पर शक करती है और लोगों के हितों की ओर उन्हें झुकाने का प्रयास करती हैं तब उन्हें पता चलता है कि उन्हें लेकर सरकार क्या ढंग अपना रही है। फिलहाल कोरोना से जूझते लोगों को तो स्वस्थ रहने में ही मुनाफा और दो रोटी में सुशासन दिखाई दे रहा है। सरकार कितनी भी रसूक से भरी क्यों न हो, सत्र कितने भी बेहतर क्यों न चले हों मगर जनता पर जो पहाड़ टूटा है उसका मलबा अभी टूटा नहीं है।
डॉ. सुशील कुमार सिंह
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