इस राजनीतिक मौसम में पाखंड यकायक फैशनेबल बन गया है। विचारधारा और भ्रष्टाचार के दाग छोड़िए। पिछले महीने में कोई इस बारे में सोच भी नहीं सकता था कि ऐसे प्रबल प्रतिद्वंदी जो एक-दूसरे पर तनिक भी विश्वास नहीं करते गठबंधन कर लेंगे और आज दोस्त तथा दुश्मन सभी एक रंग में रंग गए हैं। पहले भाजपा-शिवसेना का अमर प्रेम छिन्न-भिन्न होकर कटी पतंग बन गया तो फिर भाजपा-राकांपा का 80 घंटे तक चला प्रेम देखने को मिला और अब शिव सेना-राकांपा-कांग्रेस गुनगुना रहे हैं हम साथ साथ हैं।
प्रश्न उठता है कि क्या कोई भी आशावादी इस बात की कल्पना कर सकता है कि धर्मनिरपेक्ष राकांपा-कांग्रेस और सांप्रदायिक शिव सेना महाराष्ट्र में सरकार बना देंगे? इस खिचड़ी में क्या सरकार एक संगठित सरकार की छवि प्रस्तुत कर पाएगी जबकि गठबंधन के सहयोगी दलों में अनेक विवादास्पद मुद्दे हैं और वैचारिक रूप से वे एक दूसरे के धुर विरोधी हैं। जरा देखिए। धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस को घोर सांप्रदायिक शिव सेना के साथ गठबंधन करना पडा है। दोनों वैचारिक रूप से एक दूसरे के घोर विरोधी हैं और उन्हें अनेक सिद्धान्तों को त्यागना पडेगा।
यह सच है कि अतीत में कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्ष गौडा, गुजराल के राष्ट्रीय मोर्चा, पश्चिम बंगालमें ममता की तृणमूल, बिहार में जद (यू) की नीतीश के साथ गठबंधन किया और इनका उद््देश्य सांप्रदायिक भाजपा को सत्ता से बाहर रखना था। किंतु आज कांग्रेस हिन्दुत्व संगठन शिव सेना के साथ गठबंधन कर चुकी है और इसका उद््देश्य भी भाजपा को सत्ता से बाहर रखना है। जब धर्मनिरपेक्ष मित्र भाजपा का साथ देते हैं तो वे सांप्रदायिक दुश्मन बन जाते हैं और जब सांप्रदायिक दुश्मन भाजपा का साथ देते हैं तो वे धर्मनिरपेक्ष मित्र बन जाते हैं।
कांग्रेस के इस कदम से उसके जनाधार का एक मुख्य हिस्सा मुस्लिम समुदाय उससे दूर हो सकता है। कांग्रेस ने पहले ही केरल में आईयूएमएल से गठबंधन कर रखा है और उसने शिवसेना के साथ गठबंधन का विरोध किया है। इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि दक्षिणपंथी शिव सेना के साथ उसका गठबंधन कब तक चलेगा। किंतु लोक सभा में 42 तक पहुंचने और महाराष्ट्र में 44 तक पहंचने के बाद कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। महाराष्ट्र में सत्ता में भागीदार बनने से उसकी यह आशा जगी है कि पार्टी ने अभी सब कुूछ खोया नहीं है तथा झारखंड और दिल्ली में उसके कार्यकतार्ओं का मनोबल बढ सकता है।
कांग्रेस और राकांपा द्वारा शिव सेना सरकार को समर्थन देना एक वैचारिक विरोधाभास है तो इसमें जोडने का काम तीनों दलों का यह भय है कि भाजपा उन्हें समाप्त कर देगी।
भाजपा विरोध एक नया सिद्धान्त बन गया है और इसके चलते गैर-भाजपा पार्टियां एकजुट हो रही हैं क्योकि मित्र और शत्रु दोनों ही मोदी और शाह पर विश्वास नहीं कर रहे हैं। इसलिए नया धु्रवीकरण हिन्दुत्व बनाम धर्मनिरपेक्ष नहीं है क्योंकि कांग्रेस, राकांपा और जद (यू) ने भगवा के साथ गठबंधन किया है। आज राजनीति मोदी-शाह के विरुद्ध समर्पण करने वालों और उनका मुकाबला करने वालों के बीच बंट गयी है। विडंबना देखिए। आज शिव सेना उदारवादियों की प्रिय बन गयी है। आज विरोधियों के साथ प्रेम करना राजनीतिक कार्य साधकता बन गया है। यह कांग्रेस की ही देन है जिसने वामपंथियों का विरोध करने के लिए शिवसेना के बीज बोए थे। सबसे पहले उसने दक्षिण भारतीयों को मराठी मानुष के दुश्मन के रूप में देखा फिर वामपंथियों, बिहारियों, मुसलमानों आदि का नंबर आया। उदारवादियों का मानना है कि सत्ता में बने रहने के लिए सेना गिरगिट की तरह रंग बदल देगी किंतु यह इतना आसान नहीं है।
सेना कांग्रेस और राकांपा द्वारा सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 5 प्रतिशत आरक्षण देने के प्रस्ताव से खुश नहीं है। शिव सेना ने राम मंदिर, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और हिन्दू महासभा के संस्थापक विचारक सावरकर को भारत रत्न देने के मुद्दे पर भाजपा से अधिक तत्परता दिखायी है। किंतु अब सेना धर्मनिरपेक्षता के प्रति वचनबद्ध हो गयी है। अब उसे केवल 17 मिनट में बाबरी मस्जिद विध्वंस करने की बातें भूलनी होंगी, बिहारियों का मुंबई में स्वागत करना होगा। अब वह गोडसे को देशभक्त नहीं कह सकती है।
इस दिशा में ठाकरे ने पहले ही कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। उन्होेंने अपना अयोध्या दौरा रद्द कर दिया है और उनकी पार्टी नागरिकता विधेयक का विरोध भी कर सकती है। अल्पकाल में उसके लिए लाभदायक स्थिति हो सकती है क्योंकि वह अपने पुराने सहयोगी भाजपा से अलग हुई है और उसने भाजपा से मुंबई में अपने एक नंबर का दर्जा छीनने का बदला ले लिया है। आरंभिक वर्षों में भाजपा शिव सेना की जूनियर बनकर रही। किंतु बाद में उसने स्पष्ट कर दिया कि गठबंधन कार्य साधकता पर आधारित होगा और अब शिव सैनिक भाजपा से बदला चुकाने से खुश हैं। किंतु दीर्घकाल में पार्टी को नुकसान हो सकता है। भाजपा को रोकने के लिए मुख्यधारा में आने का प्रयास करने से यह दुविधा की स्थिति में फंस सकती है। ऊपरी तौर पर यह मुलाकात किसानों की समस्या को लेकर थी किंतु चुनाव से पूर्व प्रवर्तन निदेशालय ने उन्हें एक घोटाले में नामजद कर दिया था। भ्रम की स्थिति इसलिए भी बढी कि कुछ समय पूर्व मोदी सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण भी दिया।
ठाकरे और पवार के बीच राजनीतिक और पारिवारिक संबंध व्यावसायिक संबंधों की तरह हैं। यह मानना उचित न होगा कि मोदी और शाह ने हार मान ली है। वे इसका प्रतिकार करेंगे। एक संभावना यह है कि उनका मानना है कि विभिन्न विचाराधारा वाली पार्टियों की बेमेल सरकार ज्यादा दिन नहीं चलेगी। दूसरा वह हिन्दुत्व विचारधारा त्यागने और हिन्दू विरोधी दलों के साथ सहयोग करने के लिए शिव सेना को बदनाम कर सकती है। जिससे वह हिन्दुत्व के एकमात्र रक्षक के रूप में उभरेगी और उसे लाभ मिलेगा।
दूसरी ओर महाराष्ट्र में सत्ता गंवाना न केवल भाजपा के लिए एक बडा झटका है अपितु लोक सभा चुनावों के छह महीने बाद यह उसकी अविजेयता पर भी एक प्रश्न चिह्न लगा देता है। हरियाणा की तरह महाराष्ट्र में भी पार्टी पूर्ण बहुमत नहीं प्राप्त कर सकी। यह पार्टी के प्रसार की धीमी गति का सूचक है। अब सबकी निगाहें झारखंड पर लगी हुई है जहां पर भाजपा के लिए जीत अवश्यवंभावी बन गयी है। महाराष्ट्र के सबक क्या हैं? पार्टियों को सत्ता से चिपके नहीं रहना चाहिए क्योंकि यदि आप ऐसे व्यक्ति को धक्का दोगे जिसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है तो वह अपने अस्तित्व के लिए प्रतिकार करेगा। जीत का श्रेय लेने वाले कई लोग होते हैं किंतु हार अनाथ सी होती है।
देखना यह भी है कि क्या स्वार्थी, बेमेल पार्टियों की सत्तालोलुपता की एकता बनी रहती है या नहीं। हमारे राजनेताओ को इस बात को ध्यान में रखना होगा कि राजनीतिक फेविकोल राष्ट्र के नैतिक और वैचारिक ताने-बाने को नहीं जोड सकता है और न ही तुरत-फुरत उपायों से कोई राहत मिलती है।
-पूनम आई कौशिश
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