देश आज 72वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। लगभग पौनी सदी गुजरने तक देश हथियारों, खाद्य व जन्म दर घटाने के पक्ष से तरक्की कर गया है किंतु जिस राजनीति व सरकारी पक्षपात के खिलाफ स्वतंत्रता सेनानियों ने कुर्बानियां दी थी वह पक्षपात आज भी देश के माथे पर कलंक बना हुआ है। स्वतंत्रता संग्रामियों की याद में स्मारक जरूर बन गए हैं, जिन पर अरबों रुपए खर्च किए गए हैं, लेकिन केवल इमारतों का निर्माण ही स्वतंत्रता सैनानियों को सच्चा सलाम नहीं।
हालात तो तब अजीबो -गरीब नजर आते हैं, जब देश भक्तों की यादगारों के नींव पत्थर रखने या उद्घाटन करने वाले राजनेता खुद भ्रष्टाचार के आरोप का सामना कर रहे होते हैं। सत्ता हाथ में आने के बाद सरकारी पैसे को राजनेता पानी की तरह बहाते हैं। लेकिन जनता मूलभूत सुविधाओं को तरसती रह जाती है। आज भी अमीरों, राजनीतिज्ञों व गरीबों के लिए दो अलग-अलग भारत हैं। एक वह भारत है जहां आम किसान बारिश से बर्बाद हुई फसल का मुआवजा लेने के लिए सरकारी दफ्तरों में चक्कर काटता थक जाता है और उसे एक एकड़ फसल का मुआवजा 100 रुपए मिलता है। दूसरी तरफ एक असर रसूख वाला नेता है जिसे पटवारी 20 एकड़ फसल के नुकसान का मुआवजा डेढ़ लाख रुपए उसके घर खुद देकर आता है।
आज भी अत्याचार के शिकार हुए लोगों की सुनवाई होनादूर उल्टा मुकदमा ही उनके खिलाफ दर्ज हो जाता है। भ्रष्टाचार देश को खोखला कर रहा है जिसे रोकने के लिए राजनीतिक बयान ज्यादा दागे जा रहे हैं। राष्ट्रीय पार्टियों के लिए भ्रष्टाचार सत्ता पाने के लिए एक सहारा बन गया है। एनडीए ने कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाकर सत्ता तो प्राप्त कर ली किंतु वही आरोपों का सामना भाजपा भी कर रही है। भ्रष्टाचार विरुद्ध लड़ाई बयानबाजी से आगे बढ़ रही है। सरकारें बदलतीं है, घोटाले भी चल रहे हैं।
अनाज का उत्पादन बढ़ा है लेकिन कुपोषण भी जारी है। गरीबी मिटाने की स्कीमें आज भी वोट बैंक की नीति को लेकर जारी हैं। यदि विकास है तब गरीबी कहां से आ रही है। आर्थिक सिद्धांतों पर राजनीति में विरोधाभाष है। निसंदेह देश ने तरक्की की है लेकिन राजनेताओं व उनके साथ जुड़े उद्योगपतियों ने देश की तरक्की से लाख गुणा ज्यादा तरक्की की है।
आज इंडिया की पहचान अम्बानी व टाटा के कारण है जो दुनिया के अमीर लोगों में गिने जाते हैं। उधर देश राजधानी दुष्कर्मों व भूख से मर बच्चियों की खबरों से पटी पड़ी है। 1947 में मिली आजादी केवल राजनीतिक आजादी नहीं बल्कि आर्थिक, सामाजिक व संस्कृतिक खुशहाली की चाहत भी थी। वास्तविक आजादी के अर्थ को पूरा करने की आवश्यकता है।
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