सृष्टि के लिए मंगलकारी है श्रीराम मंदिर का शिलान्यास

श्रीराम क्षमा, दया और दम लताओं के मंडप हैं। भगवान श्री राम का जीवनकाल एवं पराक्रम महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य रामायण के रुप में लिखा गया है। दुनिया के अन्य ग्रंथों में भी भगवान श्रीमराम की महिमा का खूब गुणगान हुआ है। संसार भगवान श्रीराम को मयार्दा पुरुषोत्तम मानता है। वे एक आदर्श भाई, आदर्श स्वामी और प्रजा के लिए नीति कुशल व न्यायप्रिय राजा हैं।

अयोध्या में कौशल्यानंदन भगवान श्रीराम मंदिर का शिलान्यास और निर्माण सृष्टि के लिए मंगलकारी है। जन-जन की ऐसी ही कामना है। भगवान श्रीराम किसी एक के नहीं हैं। वे भारत राष्ट्र की आत्मा और परब्रह्म ईश्वर हैं। संसार के समस्त पदार्थों के बीज और जगत के सूत्रधार हैं। सनातन धर्म की आत्मा और परमात्मा हैं। शास्त्रों में उन्हें साक्षात् ईश्वर कहा गया है। उनकी सभी चेष्टाएं धर्म, ज्ञान, शिक्षा, नीति, गुण, प्रभाव व तत्व जन-जन के लिए अनुकरणीय हैं। उन्होंने प्रकृति के सभी अवयवों से तादाम्य स्थापित कर संसार को प्रत्येक जीव से आत्मीय भाव रखने का उपदेश दिया। उनका दयापूर्ण, प्रेमयुक्त और त्यागमय व्यवहार ही लोकमानस के हृदय में उनके प्रति ईश्वरीय भाव प्रकट किया।
भगवान श्री राम के जीवन की कोई चेष्टा ऐसी नहीं जो लोककल्याण के लिए समर्पित न हो। उनके इस त्यागमय आचरण के कारण ही उनके राज्य के जनों में धर्म, नीति और सदाचार का भाव पुष्पित हुआ। उनके प्रभावोत्पादक एवं अलौकिक चरित्र के कारण ही उनके राज्य के जनों में वैर, द्वेष और ईर्ष्या का भाव नहीं था। लोगों में समाज के जन-जन के प्रति अनुराग और सहयोग का भाव था। सत्य के पर्याय और सद्गुणों के भंडार भगवान श्रीराम का जन्म चैत्र मास की नवमी तिथि को अयोध्या में हुआ। भगवान श्रीराम बाल्यकाल से ही मर्यादाओं को सर्वोच्च स्थान दिया। इसी कारण उन्हें मयार्दा पुरुषोत्तम श्रीराम के नाम से जाना जाता है। धर्म के मार्ग पर चलने वाले श्रीराम ने अपने भाईयों के साथ गुरु वशिष्ठ से शिक्षा प्राप्त की। किशोरावस्था में गुरु विश्वामित्र उन्हें वन में उत्पात मचा रहे राक्षसों का संहार करने के लिए ले गए और उन्होंने ताड़का नामक राछसी का वध किया। मिथिला में राजा जनक द्वारा रचे गए स्वयंवर में शिव धनुष को तोड़कर उनकी पुत्री सीता से विवाह किया। पिता का आदेश मानकर 14 वर्ष के लिए वन गए। भारतीय जनमानस उनके इस जीवन पद्धति को अपना उच्चतर आदर्श और पुनीत मार्ग मानता है।
शास्त्रों में भगवान श्रीराम को लोक कल्याण का पथप्रदर्शक और विष्णु के दस अवतारों में से सातवां अवतार कहा गया है। शास्त्रों में कहा गया है कि जब-जब धरती पर अत्याचार बढ़ता है तब-तब भगवान धरा पर अवतरित होकर एवं मनुष्य रुप धारण कर दुष्टों का संहार करने के लिए आते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि ‘विप्र धेनु सुर संत हित लिन्ह मनुज अवतार, निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गोपार’। उल्लेखनीय है कि महान संत तुलसीदास ने भगवान श्रीराम पर भक्ति काव्य रामचरित मानस की रचना की है जो केवल भारत में ही नहीं विश्व के कई देशों की कई भाषाओं में अनुदित है। संत तुलसीदास ने भगवान श्रीराम की महिमा का गान करते हुए कहा है कि भगवान श्रीराम भक्तों के मनरुपी वन में बसने वाले काम, क्रोध, और कलियुग के पापरुपी हाथियों के मारने के लिए सिंह के बच्चे सदृश हैं।
वे शिवजी के परम पूज्य और प्रियतम अतिथि हैं। दरिद्रता रुपी दावानल के बुझाने के लिए कामना पूर्ण करने वाले मेघ हैं। वे संपूर्ण पुण्यों के फल महान भोगों के समान हैं। जगत का छलरहित हित करने में साधु-संतो ंके समान हैं। सेवकों के मन रुपी मानसरोवर के लिए हंस के समान और पवित्र करने में गंगा जी की तरंगमालाओं के समान हैं। श्रीराम के गुणों के समूह कुमार्ग, कुतर्क, कुचाल और कलियुग के कपट, दंभ और पाखंड के जलाने के लिए वैसे ही हैं जैसे ईंधन के लिए प्रचण्ड अग्नि होती है। श्रीराम पूर्णिमा के चंद्रमा की किरणों के समान सबको शीतलता और सुख देने वाले हैं। वे पूर्ण परमात्मा होते हुए भी मित्रों के साथ मित्र जैसा, माता-पिता के साथ पुत्र जैसा, सीता जी के साथ पति जैसा, भ्राताओं के साथ भाई जैसा, सेवकों के साथ स्वामी जैसा, मुनि और ब्राहमणों के साथ शिष्य जैसा त्यागयुक्त प्रेमपूर्वक व्यवहार किया। भगवान श्रीराम के इस गुण से ही संसार को सीखने को मिलता है कि किससे किस तरह का आचरण व व्यवहार करना चाहिए। इसीलिए राम भारतीय जन के नायक और संपूर्ण कलाओं के उद्गम बिंदु हैं।
भारत का प्रत्येक जन भगवान श्री राम की लीला भावबोध से बंधा है। राम सगुण तुलसी के भी राम हैं तो राम निर्गुण कबीर के भी राम हैं। राम सबके हैं और सभी राम के हैं। भगवान श्रीराम का रामराज्य जगत प्रसिद्ध है। हिंदू सनातन संस्कृति में भगवान श्रीराम द्वारा किया गया आदर्श शासन ही रामराज्य के नाम से प्रसिद्ध है। रामचरित मानस में तुलसीदास ने रामराज्य पर भरपूर प्रकाश डाला है। उन्होंने लिखा है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के सिंहासन पर आसीन होते ही सर्वत्र हर्ष व्याप्त हो गया। समस्त भय और शोक दूर हो गए। लोगों को दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्ति मिल गयी। रामराज्य में कोई भी अल्पमृत्यु और रोगपीड़ा से ग्रस्त नहीं था। सभी जन स्वस्थ, गुणी, बुद्धिमान, साक्षर, ज्ञानी और कृतज्ञ थे। वाल्मीकि रामायण के एक प्रसंग में स्वयं भरत जी भी रामराज्य के विलक्षण प्रभाव का बखान करते हैं। गौर करें तो वैश्विक स्तर पर रामराज्य की स्थापना गांधी जी की भी चाह थी। गांधी जी ने भारत में अंग्रेजी शासन से मुक्ति के बाद ग्राम स्वराज के रुप में रामराज्य की कल्पना की थी।
वे बार-बार कहते थे कि अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम मेरे आराध्य हैं। आज भी शासन की विधा के तौर पर रामराज्य को ही उत्कृष्ट शासन माना जाता है और उसका उदाहरण दिया जाता है। संसार भगवान श्रीराम को इसीलिए आदर्श व प्रजावत्सल शासक मानता है कि उन्होंने किसी के साथ भेदभाव नहीं किया। यहां तक कि उन्होंने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सत्य और मर्यादा का पालन करना नहीं छोड़ा। पिता का आदेश मान वन गए और दण्डक वन को सक्षसविहीन किया। गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या का उद्धार कर पराई स्त्री पर कुदृष्टि रखने वाले बालि का संहार किया और संसार को स्त्रियों के प्रति संवेदनशील होने का संदेश दिया। जंगल में रहने वाली माता शबरी को नवधा भक्ति का ज्ञान दिया। उन्होंने नवधा भक्ति के जरिए दुनिया को अपनी महिमा से सुपरिचित कराया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि मुझे वही प्रिय हैं जो संतों का संग करते हैं। मेरी कथा का रसपान करते हैं। जो इंद्रियों का निग्रह, शील, बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म में लगे रहते हैं। जगत को समभाव से मुझमें देखते हैं और संतों को मुझसे भी अधिक प्रिय समझते हैं। उन्होंने शबरी को यह समझाया कि मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरुप को प्राप्त हो जाता है। भगवान श्रीराम सभी प्राणियों के लिए संवेदनशील थे।
उन्होंने अधम प्राणी जटायु को पिता तुल्य स्नेह प्रदान कर जीव-जंतुओं के प्रति मानवीय आचरण को भलीभांति निरुपित किया। समुद्र पर सेतु बांधकर वैज्ञानिकता और तकनीकी की अनुपम मिसाल कायम की। उन्होंने समुद्र के अनुनय-विनय पर निकट बसे खलमंडली का भी संहार किया। पत्नी सीता के हरण के बाद भी अपना धैर्य नहीं खोया। असुर रावण को सत्य और धर्म के मार्ग पर लाने के लिए अपने भक्त हनुमान और अंगद को उसके पास लंका भेजा। दोनों ने भगवान श्रीराम की महिमा का गुणगान करते हुए रावण को समझाने की चेष्टा की। लेकिन रावण माता सीता को वापस करने के लिए तैयार नहीं हुआ। यहां तक कि अपने भाई विभीषण को भी लंका से बेदखल कर दिया। अंतत: भगवान श्रीराम ने लंकापति रावण का वध कर मानव जाति को संदेश दिया कि सत्य और धर्म की स्थापना के लिए जगत को आसुरी शक्तियों से मुक्त किया जाना आवश्यक है। भगवान श्रीराम का जीवन और उनका आचरण विश्व के लिए प्रेरणादायक है। उनके बताए आदर्शों पर चलकर ही एक सभ्य और सुसंस्कृत समाज का निर्माण किया जा सकता है।

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