विदेश नीति किसी देश की रणनीतिक उद्देश्य तथा भौगोलिक निर्देश की रूपरेखा को मोटे तौर पर परिभाषित करती हैं।विदेश नीति लगातार बदलती और दुरुस्त होती रहती है। उसे घरेलू बाध्यताओं तथा वैश्विक संपर्क की संभावनाओं एवं क्षमताओं के अनुसार और भी दुरुस्त किया जाता है ताकि उसके राष्ट्रीय हितों को तत्कालीन सरकार की धारणा के अनुसार सर्वश्रेष्ठ तरीके से साधा जा सके। भारत भी अपवाद नहीं है और गुट निरपेक्षता हो या प्रमुख शक्तियों को चुनकर उनके साथ गठबंधन करना हो, राष्ट्रीय हित के मामलों तथा विदेश नीति के मूल उद्देश्य पर आजादी के बाद से अभी तक समूचे राजनीतिक वर्ग का एक समान मत रहा है।
इस बात की भी संभावना है कि आप अपनी छुट्टियां विश्व के दूरस्थ गंतव्यों में मनाएं। आगे आप जिस विश्व में जा रहे हैं, वह अवसरों से परिपूर्ण होगा परन्तु इन अवसरों के साथ-साथ आपके सामने अपनी सीमाओं के पार से उत्पन्न होने वाले खतरे भी होंगे। क्या आप नहीं चाहेंगे कि आपकी सरकार उन चुनौतियों का सामना करने के लिए नीतियां बनाए, जो आपके जीवन को प्रभावित करती हैं और एक दिन आपके बच्चों के जीवन को भी प्रभावित कर सकती हैं? विदेश नीति महत्वपूर्ण क्यों है, इसका एक कारण यह भी है कि विदेश नीति अब विदेशी नहीं रह गई है। आप जहां कहीं भी हों, वहीं ये आपको प्रभावित करेंगी। यदि दूसरे शब्दों में कहें, तो हम जिस अनाज का उत्पादन करते हैं और खाते हैं, जिस हवा में सांस लेते हैं और हमारा स्वास्थ्य, हमारी सुरक्षा, समृद्धि और जीवन की गुणवत्ता इस बात से प्रभावित हो रही है कि सीमाओं के उस पार क्या हो रहा है और इसीलिए हम पड़ोस में होने वाली घटनाओं को नजरंदाज करने का साहस नहीं कर सकते, चाहे ये घटनाएं दूर में घटती प्रतीत क्यों न हो रही हों।
इसके साथ ही आज हम जिन उद्देश्यों की पूर्ति का प्रयास कर रहे हैं अर्थात अपनी जनता को गरीबी के दुष्चक्र से बाहर लाना और अपने राष्ट्र का विकास करना इसके लिए भी बेहतर विश्व के निर्माण में योगदान करने की आवश्यकता है। यह बात महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ हमारे मौलिक राष्ट्रीय हित में भी है। एक ऐसा विश्व जो शांतिपूर्ण और समृद्ध हो, जहां सार्वभौमिक रूप से सहमत सिद्धांतों का पालन किया जाए और जिसमें लोकतंत्र सभ्यताओं का सहअस्तित्व तथा मानवाधिकारों का सम्मान पुषित-पल्लवित हो। नि:संदेह विदेशी और घरेलू विषयों को एक समान नहीं समझा जा सकता । राष्ट्र का नेतृत्व इस ढंग से होना चाहिए ताकि दोनों प्रकार के विषय अच्छी तरह से निभाए जा सकें । देश की आंतरिक दृढ़ता अन्य देशों के साथ सामंजस्यपूर्ण संबंधों पर आधारित होती है। उसकी आंतरिक दृढ़ता का प्रभाव बाह्म संसार पर पड़ना चाहिए, अन्यथा वह अपने आंतरिक मामलों में दूसरे देशों के साथ सहयोग और समर्थन संबंध में आश्वस्त नहीं हो सकता है ।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न राष्ट्रों में प्रतिस्पर्धा होती है। प्रत्येक राष्ट्र दूसरे को अपना विरोधी समझता है । परन्तु राष्ट्रों के मतभेद का प्रमुख कारण उनके सिद्धांतों, नीतियों में अन्तर होना है । राष्ट्रीय विषयों की अपेक्षा अन्तरराष्ट्रीय विषयों में बढ़-चढ़ कर भाग लेने का महत्व अधिक है क्योंकि जब एक नेता किसी विशेष अंतरराष्ट्रीय स्थिति में अपने विचार प्रकट करता है तो उसके निर्णय को तब अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण से परखा जाता है ।अन्य राष्ट्र उसके साथ सहमत भी हो सकते हंै और असहमत भी । अपने राष्ट्रों के विदेशी नीतियों के संबंध शानदार और सफलतापूर्वक नेतृत्व करने वाले महान नेताओं ने विश्व के इतिहास में अपना विशेष स्थान बनाया है । विज्ञान, तकनीक के वर्तमान विकास से लगभग सभी राष्ट्र एक दूसरे पर निर्भर हो गए हंै। श्रम विभाजन, विभिन्न राष्ट्रीय स्रोतों के विषय में अंतरराष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहन मिला है । विश्व के किसी भी देश को पूर्णत: आत्म निर्भर नहीं कहा जा सकता है। यहाँ तक कि सबसे धनी देश भी अनेक आवश्यक वस्तुओं, सामग्रियों और आध्यात्मिक रूप से अन्य देशों पर निर्भर होता है ।
अंतरराष्ट्रीय विषयों पर किसी देश की अग्रणीयता का सीधा संबंध उसकी विदेश-नीति के उद्देश्यों से होता है। सामान्यत: उनके उद्देश्य राष्ट्रीय हित से जुड़े होते हैं। लेकिन ये राष्ट्रीय हित इतने संकीर्ण नहीं होते है कि अन्य देश उन्हें निजी स्वार्थ से प्रेरित मानें। प्रत्येक नीति की अपनी एक कूटनीति होती है। हमारे राष्ट्रीय हित अंतरराष्ट्रीय सहमति और पारस्परिक सद्भावना पर आधारित होने चाहिए । विदेश नीति के संबंध में अन्य देशों के संदेह की संभावना नहीं होनी चांहिए । उचित विदेश नीति के द्वारा आपसी सौहार्द और सहयोग के वातावरण का निर्माण होता है ।भारत की विदेश नीति के निर्माण में जितना योगदान पं. नेहरू का है, उतना किसी और का नहीं है । उन्होंने स्वतंत्रता के पूर्व ही भारत की विदेश नीति के मूल सिद्धांत निर्धारित किए थे, जो स्वतंत्रता के बाद अब असाधारण रूप से सफल हैं। इन सिद्धांतो के बल पर ही भारत विश्व के मामले में महत्वपूर्ण भूमिका बना सका है ।जनता द्वारा मान्य प्रतिनिधियों की सहमति से ही विदेश नीति तैयार की जानी चाहिए।
किसी देश की विदेश नीति राष्ट्र-कल्याण पर आधारित होनी चाहिए । वह कार्यपालिका अथवा न्यायपालिका के प्रभुत्व से मुक्त होनी चाहिए। उन देशों के साथ हमारे संबंध अच्छे होने चाहिए जिससे हमारी आवश्यकताएँ पूरी हो सकें । इस प्रकार आज के युग में विदेश नीति की महत्ता बहुत अधिक है .किसी गणंतत्र के लिए राष्ट्रवाद एवं मानवतावाद एक सिक्के के दो पहलू की तरह हैं। हमारी विदेश नीति का आधार ये दोनों ही पक्ष बने हुए हैं।हमारी विदेश नीति समृद्धि, सुरक्षा एवं आतंकवाद से जूझने के साझा प्रयास को लेकर चल रही है।
किसी भी विदेश नीति के कुछ खास लक्ष्य होते हैं । यदि इन लक्ष्यों को संक्षेप में व्यक्त करने को कहा जाये तो मोटे तौर पर यह मानना उचित होगा कि विदेश नीति का लक्ष्य है-राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति पूर्ति एवं रक्षा। लेकिन राष्ट्रहित शब्द अब तक भी सुस्पष्ट ढंग से परिभाषित नहीं हो पाया है ।
इसकी अस्पष्टता पर टिप्पणी करते हुए, केजे होल्सती ने ह्यलक्ष्यह्ण शब्द का प्रयोग किया है। उन्होंने लक्ष्य की परिभाषा करते हुए कहा है कि- भविष्य की वह वांछित स्थिति जिसे राज्य सरकारें अपने नीति-निमार्ताओं द्वारा निर्धारित नीतियों के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपने प्रभाव के प्रयोग द्वारा दूसरे राज्य के व्यवहार को बदल कर अथवा उसे पूर्ववत् बनाये रख कर प्राप्त करना चाहती हैं ।यहां स्पष्ट कर देना उचित होगा कि यह जरूरी नहीं कि किसी देश की विदेश नीति के लक्ष्य सदैव वही बने रहें । आवश्यकतानुसार विश्व राष्ट्रों की विदेश नीतियों के लक्ष्य बदलते रहते हैं। फिर भी यह कहा जा सकता हे कि विदेश नीति के लक्ष्यों में आमतौर पर मूलभूत परिवर्तन किन्हीं विशेष परिस्थितियों और आवश्यकताओं के दौरान ही होता है। आज के युग में किसी भी राष्ट्र द्वारा सैनिक दृष्टि से मजबूत होना अनिवार्य-सा हो गया है।
अन्यथा शत्रु-राष्ट्र उस पर सैनिक हमला कर अवैध रूप से कब्जा कर सकते हैं। इसी दृष्टि से विश्व की विदेश नीति का एक प्रमुख लक्ष्य सैनिक दृष्टि से शक्तिशाली बनना होता है। इसके लिए वे सैनिक शस्त्रों का निर्माण करते हैं तथा आवश्यक शस्त्रों के अभाव में बड़े राष्ट्रों से शस्त्र खरीदते हैं। हरेक स्वतन्त्र राष्ट्र चाहता है कि, वह अपनी राष्ट्रीय स्वाधीनता को बनाये रखे। द्वितीय विश्वयुद्ध कें बाद एशिया, अफ्रीका, लैटिन, अमरीका के अनेक देशों ने राष्ट्रीय स्वाधीनता पाने के लिए औपनिवेशिक दासता के खिलाफ संघर्ष किया ।स्वतन्त्र होने पर अधिकांश देशों ने गुटनिरपेक्ष नीति अपनायी ताकि वे बड़े राष्ट्रों के प्रभाव से मुक्त होकर स्वतन्त्रता का मार्ग अपना सकें। इस प्रकार राष्ट्रीय स्वाधीनता का लक्ष्य अनेक छोटे एवं गरीब देशों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अत: इस संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि विदेश नीति एवं राष्ट्र हित के बीच एक गहन संबंध होता है। राष्ट्रहित विभिन्न संदर्भो में विदेश नीति हेतु आवश्यक भूमिका निभाते हैं। भारत की ही नहीं अपितु विश्वा के किसे भी देश,उसके जनसख्या के विकास का उसकी विदेश निति एक अहम साधक है।
लेखक: गौरव कुमार
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