किसी सरोवर के तट पर वृक्ष के ऊपर एक बटेर घोंसला बनाकर अपनी मादा के साथ रहता था। एक बार मादा ने अंडे दिए। सरोवर में पानी पीने के लिए प्राय: हाथी आया करते थे, जो मस्ती में तोड़-फोड़ भी करते। एक दिन बटेरिन ने बटेर से कहा- ‘उद्दंड स्वभाव के ये हाथी हमारे घोंसले को भी नष्ट कर सकते हैं।’ बटेर ने हाथियों के राजा से इस विषय में बात की। हाथियों का राजा दयालु था। अब वह स्वयं बटेर के घोंसले पर पहरा दिया करता। कुछ दिन बाद जब वह अपने दल के साथ जाने लगा तो उसने बटेर से कहा- ‘भाई, अब जो हाथी आएगा, वह बेहद दुष्ट है।
तुम उससे सावधान रहना।’ जब वह हाथी वहाँ आया तो बटेर ने उससे घोंसला नष्ट न करने की प्रार्थना की, किन्तु उसने घोंसले को उजाड़ दिया। बटेर ने भी उसे सबक सिखाने की ठान ली। वह सबसे पहले कौए के पास गया और पूरी बात सुनकर बोला- ‘तुम दुष्ट हाथी की आँखें अपनी चोंच से निकाल लो।’ कौआ मान गया। फिर बटेर चींटी के पास जाकर बोला- ‘तुम हाथी की अँधी आँखों में अंडे दो। अंडे से बच्चे निकलने पर वे हाथी को काट-काटकर व्याकुल बना देंगे।’ तत्पश्चात बटेर मेढ़क के पास जाकर बोला-‘तुम पहाड़ से टर्र-टर्र करके उसे पहाड़ पर ले जाओ।
वह पहाड़ से गिरकर अपनी सजा स्वयं पा लेगा।’ बटेर के सभी मित्रों ने अपना वचन निभाया। जब हाथी अंधा हो गया और चींटी के बच्चे काट-काटकर उसे व्याकुल बनाने लगे तो उसे प्यास लगने लगी। उसी समय पहाड़ से मेढ़क की आवाज सुनकर उसे लगा कि जल वहीं होगा। वह पहाड़ पर चढ़ने लगा और इस प्रयास में गिरकर मर गया। कथा का मर्म यह है कि बल से बुद्धि श्रेष्ठ होती है। यदि शत्रु बलवान हो तो आमने-सामने न लड़कर उसे बुद्धि-बल से पराजित करना चाहिए।
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