कब तक बोरवैल में दफन होते रहेंगे मासूम?

कब तक बोरवैल में दफन होते रहेंगे मासूम?

उत्तर प्रदेश के फरूर्खाबाद जिले में कमालगंज क्षेत्र के गांव रशीदापुर में 3 अप्रैल को दोपहर करीब ढ़ाई बजे एक और बच्ची सीमा 60 फुट गहरे बोरवैल में गिरकर 26 फुट की गहराई पर फंस गई थी, जिसे सेना के आॅपरेशन असीम के बावजूद बचाया नहीं जा सका। हालांकि सेना के जवानों ने इस आॅपरेशन के तहत जेसीबी से रैंप बनाकर सुरंग से बालिका तक पहुंचने का प्रयास किया लेकिन थोड़ी सी दूरी रह जाने पर बलुई मिट्टी धंसने से बच्ची छह फुट और नीचे खिसककर 32 फुट की गहराई पर फंस गई। 55 घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद भी सेना और एनडीआरएफ के जवान सीमा को बचाने में सफल नहीं हो सके। बोरवैल में गहरे फंसी बच्ची में कोई हरकत न देखे जाने पर परिजनों द्वारा उसके जिंदा न होने की उम्मीद जताने पर अंतत: 6 अप्रैल को गड्ढ़ा बंद कर दिया गया और इस प्रकार 8 वर्षीय मासूम सीमा बोरवैल में ही दफन हो गई।

पहली बार हरियाणा में कुरूक्षेत्र के हल्दाहेड़ी गांव में 21 जुलाई 2006 को किसी मासूम के बोरवैल में गिरने की घटना मीडिया की सक्रियता के चलते सबके सामने आई थी, जब पांच वर्षीय मासूम प्रिंस 50 फीट गहरे बोरवैल में गिर गया था और उसे सेना की रेस्क्यू टीम की कड़ी मेहनत के चलते तीन दिन बाद मौत के गड्ढ़े से सकुशल बाहर निकाल लिया गया था। उस समय पहली बार दुनियाभर का ध्यान इस तरह की घटना की ओर गया था क्योंकि टीवी चैनलों ने इसका घटनास्थल से सीधा प्रसारण किया था।

उसके बाद उम्मीद जताई गई थी कि इस घटना से सबक लेकर ऐसे उपाय किए जाएंगे ताकि भविष्य में और किसी बच्चे के साथ ऐसे दर्दनाक हादसे न हों किन्तु प्रिंस हादसे के बाद मासूमों के बोरवैल में गिरने की घटनाएं देश में अक्सर कहीं से कहीं देखने-सुनने को मिलती रही हैं। हालांकि ऐसा कोई अधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, जिससे ऐसे हादसों में होने वाली मौतों की संख्या का पता चल सके लेकिन जैसी हमारी व्यवस्थाएं हैं और जिस तरह का हमारा तंत्र है, उसके मद्देनजर यह अवश्य कहा जा सकता है कि बार-बार होते ऐसे हादसों पर आंसू बहाना ही हमारी नियति है।

ऐसी बढ़ती घटनाओं के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2010 में संज्ञान लिया था और कुछ दिशा-निर्देश जारी किए थे। 2013 में सर्वोच्च अदालत ने बोरवैल से जुड़े कई दिशा-निदेर्शों में सुधार करते हुए नए दिशा-निर्देश जारी किए, जिनके अनुसार गांवों में बोरवैल की खुदाई सरपंच तथा कृषि विभाग के अधिकारियों की निगरानी में करानी अनिवार्य है जबकि शहरों में यह कार्य ग्राउंड वाटर डिपार्टमेंट, स्वास्थ्य विभाग तथा नगर निगम इंजीनियर की देखरेख में होना जरूरी है, इसके अलावा बोरवैल खोदने वाली एजेंसी का रजिस्ट्रेशन होना भी अनिवार्य है। सुप्रीम कोर्ट के निदेर्शानुसार बोरवैल खुदवाने के कम से कम 15 दिन पहले डी.एम., ग्राउंड वाटर डिपार्टमेंट, स्वास्थ्य विभाग और नगर निगम को सूचना देना अनिवार्य है।

बोरवैल की खुदाई से पहले खुदाई वाली जगह पर चेतावनी बोर्ड लगाया जाना और उसके खतरे के बारे में लोगों को सचेत किया जाना आवश्यक है, इसके अलावा ऐसी जगह को कंटीले तारों से घेरने और उसके आसपास कंक्रीट की दीवार खड़ी करने के अलावा गड्डों के मुंह को लोहे के ढ़क्कन से ढ़कना भी अनिवार्य है लेकिन सरकारी अथवा गैर सरकारी संस्थाओं या व्यक्तियों द्वारा बिना सुरक्षा मानकों का पालन किए गड्ढ़े खोदना और खुदाई के बाद उन्हें खुला छोड़ देने का सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। अपवाद स्वरूप किसी बच्चे को ऐसे हादसे में बचाने में सफलता मिल जाती है तो जिंदगी की जंग जीत लेने का जश्न मनाते हुए प्रशासन द्वारा बहादुरी के गीत गाए जाते हैं अन्यथा ऐसे अधिकांश मामलों में मासूम बच्चे मौत से हार जाते हैं और प्रशासन अपनी बेबसी पर आंसू बहाता नजर आता है। केन्द्र सरकार ने मार्च 2009 में ऐसी घटनाओं की रोकथाम के प्रावधान बनाने के लिए एक कमेटी गठित की थी किन्तु उस कमेटी की रिपोर्ट का क्या हुआ, कोई नहीं जानता।

अदालत की गाइडलाइन में स्पष्ट है कि बोरवैल की खुदाई के बाद अगर कोई गड्ढ़ा है तो उसे कंक्रीट से भर दिया जाए लेकिन ऐसा न किया जाना ही हादसों का सबब बनता है। अदालती दिशा-निदेर्शों का उल्लंघन करने वालों के लिए कठोर दंड का भी प्रावधान है किन्तु बार-बार सामने आ रहे दर्दनाक हादसों के बावजूद ऐसा कोई मामला याद नहीं आता, जब किसी को ऐसी लापरवाहियों के लिए कठोर दंड मिला हो, जो दूसरों के लिए सबक बन सके। बात बोरवैल की हो या शहरों में खुले पड़े मैनहोल की, जिनमें गिरकर अभी तक सैंकड़ों लोग अपने प्राण गंवा चुके हैं, हर जगह प्रशासन की लापरवाही स्पष्ट उजागर होती रही है किन्तु ऐसे हादसों से कोई सबक नहीं लिया जाता।

आए दिन होते ऐसे हादसों के बावजूद न आम आदमी जागरूक हो पाया है, न प्रशासन को इस ओर ध्यान देने की फुर्सत है। आखिर मौत के आगोश में धकेलने को तैयार सरकारी या निजी स्तर पर नलकूपों के लिए खोदे गए ऐसे गड्ढ़े, पुराने सूख चुके कुएं, मैनहोल इत्यादि कब तक खुले रहेंगे? कहीं बोरिंग के लिए खोदे गए गड्ढ़ों या सूख चुके कुओं को बोरी, पॉलीथीन या लकड़ी के फट्टों से ढ़ांप दिया जाता है तो कहीं इन्हें पूरी तरह से खुला छोड़ दिया जाता है और अनजाने में ही कोई ऐसी घटना घट जाती है, जो किसी परिवार को जिंदगी भर का असहनीय दर्द दे जाती है। न केवल सरकार बल्कि समाज को भी ऐसी लापरवाहियों को लेकर चेतना होगा ताकि भविष्य में फिर ऐसे दर्दनाक हादसों की पुनरावृत्ति न हो। योगेश कुमार गोयल