आमतौर पर जब भी पर्यावरण प्रदूषण की बात चलती है, हम हवा, पानी और मिट्टी के प्रदूषण की चर्चा करते हैं। यह सही भी है क्योंकि ये तीनों बुनियादी चीजें हैं जो प्रदूषण चक्र का पहला शिकार बनते हैं लेकिन ये अंतिम नहीं होते। दरअसल, इनके प्रदूषित होने के बाद ही प्रदूषण की वास्तविक प्रक्रिया शुरू होती है। इनके प्रदूषित होने के बाद ही मनुष्य खाद्यान्न-चक्र प्रभावित होता है और यह प्रदूषण आदमी के शरीर को सर्वाधिक खतरनाक ढंग से प्रभावित करता है। यह प्रदूषण सामान्यत: भारी धातुओं से होता है। भारी धातु से होने वाला प्रदूषण अभी हमारे समाज में बहुत चर्चा का विषय नहीं बन पाया हैै हालांकि सरकार ने इस खतरे को आठवें दशक की समाप्ति के समय तक समझ लिया था।
1979 के आरंभ में भारत सरकार ने भारी धातु से होने वाले प्रदूषण के अध्ययन हेतु एक कार्यदल गठित किया था। कार्यदल ने भारी धातु परियोजनाओ के लिए एक समेकित पर्यावरण कार्यक्रम की अनुशंसा की थी। इसके बाद फिर 1993 और 96 में इंडियन कौंसिल आफ मेडिकल रिसर्च की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। यह रिपोर्ट दोषपूर्ण खाद्यान्नों से संबंधित थी। इस रिपोर्ट में भी पुराने कार्यदल के सभी सुझाव दुहराए गये थे लेकिन सरकार ने इन रपटों पर कोई खास ध्यान नहीं दिया। नतीजा यह हुआ है कि खाद्यान्न श्रृंखला निरंतर और ज्यादा तेजी से प्रदूषित होती गई। पिछले दिनों कोलकात्ता विश्वविद्यालय और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कोलकात्ता के नजदीकी इलाकों का एक अध्ययन कराया था। इसके मुताबिक कोलकाता के नजदीक एक छोटी से जगह धापा-बमतल्ला गांव की सब्जियों में विषैले धातु पाए गए। कोलकाता शहर में बिकने वाली सब्जियों का एक-चौथाई हिस्सा इसी क्षेत्र से आता है।
यहां उत्पादित फूलगोभी में प्रति किलो 44.1 मिलीग्राम सीसा और 3.3 मिलीग्राम कैडमियम पाया गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मनुष्य के शरीर में सीसा और कैडमियम की अहानिकर मात्रा क्रमश: 0.5 मिलीग्राम और 0.0083 मिलीग्राम प्रति किलो निर्धारित किया है। इस आधार पर यदि 50 किलो वजन का कोई व्यक्ति धापा क्षेत्र में उत्पादित 200 ग्राम फूलगोभी खाता है तो उसके शरीर में सीसे और कैडमियम की मात्रा निर्धारित सीमा से ज्यादा हो जाएगी। इस अध्ययन के मुताबिक डिब्बाबंद पैकिंग से भी खाद्य पदार्थो में इन भारी धातुओं की मात्रा बढ़ जाती है। अध्ययन करने वाले विशेषज्ञोंं का मानना है कि अगर डिब्बाबंद खाद्यान्नों को कमरे के तापमान पर एक साल तक रखा जाए तो इसमें विषैले पदार्थो की मात्रा 27 मिलीग्राम प्रति किलो से बढ़कर 542 मिलीग्राम हो जाएगी।
डिब्बाबंद खाद्यान्नों के अंतर्गत ही आते हैं प्लास्टिक की थैलियों में बंद खाद्यान्न। आमतौर पर इनका इस्तेमाल सब्जी और फास्ट फूड वगैरह की सामग्री रखने के लिये किया जाता हेै। दरअसल, इन थैलियों को रंगने में सीसा और कैडमियम का इस्तेमाल किया जाता है। जब इन थैलियों में वसायुक्त पदार्थ भरे जाते हैं तो वे इन धातुओं को अवशोषित करते हैं। इस प्रकार इन थैलियों में भरे खाद्य पदार्थ प्रदूषित हो जाते हैं। यदि ये खाद्य पदार्थ ज्यादा समय तक इन थैलियों में बंद रहे तो खाने वाले के लिए बहुत घातक हो सकते है।
रंगों में भी सीसे की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है। रंग जितना सस्ता होता है, उसमें उतना ही ज्यादा सीसा होता है। हमारे खाद्य पदार्थो में सीसे और कैडमियम के पहुंचने का एक रास्ता नदियों और समुद्रों का पानी भी है। उदाहरण के लिए त्यौहारों के समय मूर्तियां बनाने में रंगों का काफी इस्तेमाल होता है। त्यौहार की समाप्ति पर जब इन मूर्तियों को नदी में विसर्जित किया जाता है तब इनका रंग घुल कर पानी को प्रदूषित करने का काम करता है। नेशनल इन्वायरनमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक भारत के अंतर्देशीय जल का 70 फीसदी से ज्यादा हिस्सा पीने लायक नहीं रह गया है। तकरीबन सभी नदियों में निर्धारित मात्रा से ज्यादा भारी धातु मौजूद हैं। भारत के करीब डेढ सौ बड़े शहरों से महज आठ में नालियों की संतोषजनक व्यवस्था है। 64 शहरों में आंशिक सुविधा है और शेष 78 शहरों में नालियों की कोई व्यवस्था नहीं है।
भारत ईख से चीनी उत्पादित करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश है लेकिन इसे यह सम्मान इथिनॉल जैसी विषैली गैस की कीमत पर मिलता है। छोआ चीनी उद्योग का एक मुख्य प्रत्युत्पाद है और यह औद्योगिक अल्कोहल व इथिनॉल बनाने के लिए कच्चे पदार्थ के रूप में इस्तेमाल होता है। भारत में सल्ॅफर डाइआक्साइड से चीनी साफ की जाती है, इसलिये भारतीय छोआ और इथिनॉल में सल्फर की मात्रा बहुत ज्यादा होती है। दूसरे देशों की तुलना में भारतीय छोआ में धातु की मात्रा अधिक होती है। इसमें लोहे और जस्ते की मात्रा क्रमश: 410 मिलीग्राम और 477 मिलीग्राम प्रतिग्राम हे। यह मात्रा क्यूबा या ब्राजील के छोआ में पाए जाने वाले धातु के मुकाबले 10 से 30 गुना ज्यादा है।
ये भारी धातु हैं जो स्पष्ट रूप से ज्ञात अन्य 97 धातुओं से भिन्न हैं। इनमें सीसा, कैडमियम, पारा वगैरह ऐसे धातु हैं जिनका कोई जैविक महत्व नहीं है और न इनका इस्तेमाल किसी तरह से फायदेमंद है। अलबत्ता यह साबित है कि ये काफी विषैले होते हैं। इनके अलावा अन्य विषैले धातु हैं क्रोमियम, तांबा, मैगनीज, निकेल टिन और जस्ता। एक बार जब ये धातु वातावरण की बाहरी परत में मिल जाते हैं तो इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है और न ही ये खत्म होते है। इन धातुओं से होने वाला प्रदूषण स्थाई होता है। इनकी वजह से हमारी पूरी खाद्य श्रृंखला प्रदूषित हो रही है। इसलिए समय रहते इन स्थाई प्रदूषकों से निबटने के लिए ठोस योजना बनाने की जरूरत है।
लेखक डॉ. आशीष वशिष्ठ