Flood: मैं घुटने तक पानी में खड़ा हूं जिसने मेरे सपनों के घर को बहा दिया है, मेरी आकांक्षाओं और इच्छाओं को नष्ट कर दिया है। मेरी आशाओं को धूमिल कर दिया है। देश के विभिन्न भागों में भारी बरसात से हुई विभीषिका के बाद लोगों की दुखभरी कराहों में यही सुनाई दे रहा है और वे नि:सहाय होकर इस भारी विनाश और मौत के तांडव को देख रहे हैं।
मूसलाधार वर्षा के कारण राजधानी दिल्ली, उत्तर भारत के अनेक शहरों और गांवों में भारी विनाश हुआ है, सड़कें टूट गई हैं, रेल सेवा बाधित हुई है, हिमाचल और उत्तराखंड में भारी भूस्खलन के कारण दैनिक जीवन पंगु बन गया है, अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है, कृषि को भारी नुकसान हुआ है, अवसंरचना अस्त-व्यस्त हो गई है, कारोबार और पर्यटन ठप हो गए हैं। अनेक हजारों लोग बेघर हुए हैं और सब कुछ ठप हो गया है। इस मूसलाधार बारिश के बीच लगता है कंगाली में आटा गीला की कहावत चरितार्थ हो रही है। Flood
हमारे योजनाकारों को देखिए। हैरानी की बात यह है कि दिल्ली में 800 मीटर की औसत दूरी पर 22 किलोमीटर लंबे मार्ग पर 25 पुलों से जल का प्रवाह रुक गया है क्योंकि वहां गाद जमी हुई है जिससे नदी की सतह ऊंची हो गई है जहां पर शहरी नालों से पानी नहीं पहुंच पा रहा है। प्रदूषित और मरणासन्न यमुना 1978 के बाद अपने सर्वोच्च जल स्तर तक पहुंची है।
नदी के तटवर्ती क्षेत्रों में अतिक्रमण, निर्माण और कूड़े के ढ़ेर लगे होने के कारण उसका प्रवाह क्षेत्र सिमट गया है। यदि पिछले कुछ दिनों में हिमाचल में 200 से अधिक और उत्तराखंड में 89 लोगों की भारी वर्षा के कारण जान गई है। सरकार ने जलमग्न शहरों में एक लाख से अधिक लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया है। इस भारी बरसात और बाढ़ का कारण केवल प्राकृृतिक नहीं है। इसका कारण प्रशासनिक उदासीनता, अदूरदर्शी नियोजन और अंतर-राज्य समन्वय का अभाव भी है। अब देशवासियों को वही घिसी-पिटी बातें सुनने को मिलेंगी जो वे वर्ष दर वर्ष सुनते आ रहे हैं। Flood
कल असम की बारी थी, आज दिल्ली, हिमाचल की है जहां पर नावों से सफर करना पड़ रहा है, फिर कल असम की बारी होगी और इस सब पर हमारे नेताओं की प्रतिक्रिया आशानुरूप होती है और यह एक तरह से उनकी वार्षिक नौटंकी होती है। हर कोई कामचलाउ समाधान सुझाता है। इस संकट पर सभी दुख व्यक्त करते हैं। राहत देने की बात की जाती है। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री, विपक्षी दल आदि सभी संकट पर दुख व्यक्त करते हैं और लोगों को सहायता पहुंचाने का वादा करते हैं और यहां तक मुआवजा देने की घोषणा भी की जाती है। Flood
ये नेता जो कहते हैं वे करते नहीं हैं। अन्यथा वे अंधाधुध निर्माण की अनुमति क्यों देते हैं? नालों की सफाई क्यों नहीं होती है? नदियों और नालों के किनारे पर झुग्गी बस्तियों का अतिक्रमण क्यों होने देते हैं? वर्षा जल निकासी का समुचित प्रबंधन क्यों नहीं करते हैं? सड़कें खुदी क्यों छूटती हैं और नदियों तथा नालों से गाद क्यों नहीं निकाली जाती है? यह कटु सच्चाई को दर्शाता है। वर्षा की तीव्रता और उसके प्रभाव के बारे में भविष्यवाणी करने के बारे में सरकार कोई विशेषज्ञ तंत्र बनाने में विफल रही है। कुल मिलाकर आपदा प्रबंधन ही एक आपदा है। Flood
मूसलाधार बारिश को भगवान की करनी माना जा सकता है किंतु इससे हुई अव्यवस्था, विनाश और नुकसान मानव निर्मित है और इसका कारण मानवीय भूलें हैं। उदाहरण के लिए तमिलनाडु में पिछले 13 वर्षों में आठ चक्रवात आए हैं इसलिए यह अपेक्षा की जाती है कि राष्ट्रीय और राज्य आपदा प्रबंधन दलों ने मिलकर इस आपदा का सामना करने की तैयारी की होगी। किंतु वास्तविकता क्या है? तैयारी कहीं देखने को नहीं मिलती है। राज्य की एजेंसियों के बीच संचार और समन्वय का अभाव है। तलाशी और राहत कार्यों में समन्वय नहीं है और केवल परिवार के लोग ही एक दूसरे का सहारा बनते हैं।
किंतु क्या कोई इसकी परवाह करता है? मूसलाधार बारिश, भूस्खलन और अचानक आने वाली बाढ़ें विशेषकर पहाड़ी राज्यों में प्रति वर्ष देखने को मिलती हैं। इसलिए प्रश्न उठता है कि सरकार बाढ़ को प्राथमिकता केवल संकट के समय क्यों देती है। सरकार लोगों की मौत के बाद ही प्रतिक्रिया क्यों व्यक्त करती है? इसके लिए कौन जवाबदेह होगा और किसे दंडित किया जाएगा? आधिकारिक उदासीनता इन सबको स्पष्ट कर देती है। Flood
वर्षा ने 45 साल का रिकार्ड तोड़ा और रिकार्ड 12 लाख से अधिक क्यूसेक पानी छोड़ा गया। इन अधिकारियों से पूछा जाए कि महानगरों में जल निकासी प्रणाली का पर्याप्त विकास क्यों नहीं किया गया ताकि विभिन्न प्रकार के संकटों का सामना किया जा सके। इस वार्षिक समस्या के समाधान के लिए दीर्घकालिक समाधान क्यों नहीं तलाशे गए? इस बात की पर्याप्त व्यवस्था क्यों नहीं की गई कि इन आपदाओं में बचे लोग भुखमरी या प्रशासन की उदासीनता के कारण काल के ग्रास न बनें। इसका मुख्य कारण यह है कि इनके लिए लोग मात्र एक संख्या मात्र है और उनके साथ खिलवाड़ किया जा सकता है। यह स्वार्थी राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था का प्रमाण है तथा इसका उनके पास कोई इलाज नहीं है एवं आज सभी सरकर को दोष दे रहे हैं। Flood
ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स रिपोर्ट में भारत आठवें स्थान पर है और इस रिपोर्ट के अनुसार देश में बाढ़ बारंबार आने वाली आपदा है और यह प्राकृतिक आपदाओं का 52 प्रतिशत हिस्सा है। नि:संदेह बाढ़ के कारण गंभीर वित्तीय प्रभाव पड़ता है। विशेषज्ञों का मानना है कि इसका गंभीर आर्थिक प्रभाव पड़ेगा जिससे अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी। सरकार द्वारा सड़क, पुलों आदि जैसी अवसंरचना के विकास में किया गया निवेश बह गया है। जिसके चलते उसे पुन: निवेश करना पड़ेगा फलत: विकास कार्यों में विलंब होगा और वित्तीय बोझ बढ़ेगा। Flood
इसके अलावा क्षतिग्रस्त ढांचों की मरम्मत और पुनर्निर्माण के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन और समय चाहिए जिसके चलते यातायात नेटवर्क में बाधा आती है, स्थानीय कारोबार की आपूर्ति श्रृृंखला प्रभावित होती है तथा पर्यटन प्रभावित होता है जिसके चलते क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। लोगों की आजीविका पर इसके प्रभाव के कारण यह संकट और गहराता जाता है। कुल मिलाकर प्रशासन को जमीन पर उतरना होगा तथा जल निकासी प्रणाली में सुधार करना होगा क्योंकि यह प्रणाली मानसून के दौरान जल निकासी के अनुरूप नहीं बनी हुई है। Flood
प्राधिकारियों को वर्षा जल प्रणाली की सफाई और गाद निकालने तथा उन्हें चौड़ा करने के लिए एक पारदर्शी व्यवस्था बनानी होगी। जल निकासी का एक मास्टर प्लान बनाया जाना चाहिए। विद्यमान नालों और जल निकासी प्रणाली का बेहतर प्रबंधन किया जाना चाहिए। नालों के किनारों पर अतिक्रमण पर रोक लगनी चाहिए तथा नालों में कूड़ा फेंकने पर तुरंत रोक लगाई जानी चाहिए। मध्यकालिक उपायों में उत्तरी क्षेत्रों और निचले क्षेत्रों में रहने वाले राज्यों को विनियामक और प्रबंधन योजनाओं पर कार्य करना चाहिए जो राजनीतिक या चुनावी घटनाक्रम से प्रभावित न हो। ऐसे प्राधिकरण के गठन से बांधों का बेहतर प्रबंधन होगा और विपरीत मौसमी दशाओं के प्रभाव पर कुछ अंकुश लगाया जा सके।
दीर्घकालीन उपायों में योजनाकारों को अपने दृष्टिकोण में बदलाव करना होगा। सड़क निर्माण के साथ ढलवां क्षेत्रों में स्थिरता के लिए भी उपाय किए जाने चाहिए और यह उपाय एक बार नहीं अपितु नियमित रूप से किया जाना चाहिए। इसके साथ ही भवन निर्माण मानदंडों को भी लागू किया जाना चाहिए। समय की मांग है कि प्राकृतिक रूप से नाजुक क्षेत्रों में लोगों और अवसंरचना का संरक्षण किया जाए। नए निर्माणों को मंजूरी, निर्माण दिशा-निर्देशों और नाजुक क्षेत्रों में वाहनों तथा लोगों की आवाजाही के बारे में सरकर को ठोस निर्णय लेना होगा। किंतु अभी जो नीतियां बनाई जा रही हैं यह मध्यम या दीर्घकालीन मौसम के आधार पर बनाई जा रही हैं। Flood
प्रधानमंत्री मोदी ने भारत को एक विकसित देश और महाशक्ति बनाने की योजना बनाई है किंतु इस मौसम की विनाशकारी बाढ़ ने स्पष्ट कर दिया है कि आज के बाढ़ प्रवण महानगरों की समस्याओं का निराकरण करना अधिक महत्वपूर्ण है। समय आ गया है कि हमारे नेता हर वर्ष आपदा के समय घड़ियाली आंसू बहाने के बजाए ठोस कदम उठाएं। इन नेताओं को इस सोच से बाहर निकलना होगा कि यदि डेढ़ अरब से अधिक की जनसंख्या वाले देश में कुछ लाख विस्थापित हो गए हैं तो की फर्क पैंदा है। वर्ष 2023 के भारत की स्थिति भविष्य का संकेत है।
आपदाओं से निपटने के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए उसके लिए न तो हमें अत्यधिक संवेदनशील होने की जरूरत है और न ही उदासीन होने की जरूरत है। यदि अब भी हम अपने नेताओं को इसलिए चुनते हैं कि वे कुछ न करें तो भविष्य में भी और अधिक बुरी खबरें सुनने को मिलेंगी। हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि जीवन केवल एक संख्या नहीं है अपितु इसमें हाड, मांस और धड़कता हुआ दिल भी होता है। क्या हम लोगों को कराहते छोड़ सकते हैं?
पूनम आई कौशिश, वरिष्ठ लेखिका एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (यह लेखिका के अपने विचार हैं)