दक्षिणी-पश्चिमी मानसून में एकाएक आई तेजी की वजह से इस समय देश के उत्तर तथा उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों में उत्पन्न बाढ़ की स्थिति ने वहां का जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया है। उत्तराखंड, ओडिशा, बिहार, असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश आदि राज्य बाढ़ की चपेट में हैं। दुखद है कि बाढ़ का यह स्वरुप धीरे-धीरे जानलेवा होता जा रहा है।
केवल पूर्वोत्तर से अब तक सौ से अधिक लोगों के मरने की खबरें आई हैं। सबसे बुरा असर प्रभावित इलाकों के ग्रामीण समाज तथा अर्थव्यवस्था पर पड़ा है। जलप्लावन की वजह से अनेक गांव तबाह हो चुके हैं, लाखों लोग त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। बेजुबान पशुओं के लिए भी यह बाढ़ आफत साबित हो रही है। वहीं, लाखों हेक्टेयर भूमि पर खड़ी फसलें भी नष्ट हो चुकी हैं।
हालांकि, बरसात के महीने में बाढ़ आना कोई नई बात नहीं है। जून से सितंबर तक दक्षिणी-पश्चिमी मानसून के चार महीने की समयावधि में होने वाली अत्यधिक वर्षा से उत्पन्न बाढ़ की वजह से मुख्यत: उत्तर तथा पूर्वोत्तर भारत के अधिकांश राज्यों में हालात नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं। बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का दृश्य कुछ पल के लिए मरघट-सा हो जाता है।
एक तरफ, लोगों के समक्ष सुरक्षित स्थानों पर जाकर अपने जीवन को बचाने की चुनौती होती है, वहीं इसके पश्चात प्रभावित आबादी के बीच भोजन, पेयजल, दवा जैसी मूलभूत सुविधाओं को प्राप्त करने की व्याकुलता भी बढ़ जाती है।
मौजूदा समय में नदियों के उफान पर बहने के कारण करोड़ों लोगों का जनजीवन प्रभावित हो गया है। रेल की पटरियों और सड़कों पर पानी भर जाने से यातायात व्यवस्था पूरी तरह ठप हो चुकी है। जबकि, मूसलाधार बारिश की वजह से संचार व्यवस्था भी बाधित हो चुकी है। एनडीआरएफ की कई टीमें तत्काल सहायता के लिए उपलब्ध कराई जा रही हैं, ताकि लोगों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाया जा सके।
भारत में बाढ़ की विभीषिका से प्रतिवर्ष लाखों लोग हताहत होते हैं। इसके अलावा इस आपदा से बड़े पैमाने पर जान-माल की हानि भी होती है। गंगा, ब्रह्मपुत्र, कोसी, महानन्दा, दामोदर, हुगली, गंडक, कावेरी, कृष्णा, सतलुज आदि नदियाँ देश में बाढ़ का कारण बन रही हैं। ये सारी नदियाँ प्राय: हर साल तबाही लाकर अनगिनत परिवारों की जिंदगी सूनी करती हैं। बाढ़ प्रभावित इलाकों में रहने वाली आबादी तो हर साल इसी डर के साये में अपना जीवन व्यतीत करती हैं।
भारत में लगभग 400 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ के खतरे वाला है, जिसमें से प्रतिवर्ष औसतन 77 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित होता है। हर साल लगभग 35 लाख हेक्टेयर क्षेत्र की फसलें नष्ट हो जाती हैं। योजना आयोग के एक अनुमान के अनुसार, देश में प्रतिवर्ष औसतन 1,439 लोग बाढ़ के कारण मारे जाते हैं। जबकि, इस वजह से फसलों, मकानों, मवेशियों तथा व्यक्तिगत-सार्वजनिक संपत्तियों का बड़े पैमाने पर नुकसान भी होता है।
गौरतलब यह है कि देश के किसी भी हिस्से में जब भी बाढ़ आती है तो हमारे सामने नदियों की मंद पड़ी गति का प्रश्न खड़ा हो जाता है। दरअसल, देश में बारहमासी नदियों के साथ-साथ बरसाती नदियां भी प्रदूषण की मानक रेखा से ऊपर बह रही हैं। गाद-मलबों की अधिकता होने के कारण नदियों की प्राकृतिक गति सुस्त पड़ गयी है।
ऐसे में, हल्की बारिश होने पर भी नदियां जल संग्रहण नहीं कर पाती हैं और बाढ़ के फैलाव का सबसे बड़ा कारण बन जाती है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट की मानें, तो देश की 445 नदियों में से 275 नदियां अभी भी प्रदूषित हैं।
बढ़ते औद्योगीकरण, कल-कारखाने से अनियंत्रित मात्रा में निकलते अशोधित अपशिष्ट तथा सीवरेज से निकलने वाली गंदगियों की वजह से देश के हर कोने में नदियां प्रदूषण के बोझ से दबी जा रही हैं।
ऐसे में लगता है कि सरकार की नदी जोड़ो परियोजना भी निरर्थक साबित होगी, क्योंकि गाद-मलबों की अधिकता की वजह से नदियां अब सतत रुप से ना तो प्रवाहित हो पा रही हैं और ना ही उनमें अब जल धारण करने की क्षमता ही शेष है।
बेशक, सरकार ने गंगा और यमुना जैसी चंद नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए करोड़ों रुपये की योजनाओं को मूर्त रूप दिया है, किन्तु सैकड़ों नदियां आज भी सरकारी उपेक्षा की शिकार हैं। यही उपेक्षित नदियां बाढ़ को आमंत्रण दे रही हैं।
बेशक, बाढ़ एक प्राकृतिक आपदा है। लेकिन, इसके लिए आवश्यक दशाओं के निर्माण में मानव और उसकी स्वार्थपरक क्रियाओं को किसी भी दृष्टि से कमतर नहीं आँका जा सकता। दरअसल, यह सब नतीजा है विकास के उस आधुनिक दृष्टिकोण का, जिसके तहत मानव प्रकृति को अपना मित्र समझने की बजाय, गुलाम समझ रहा है। वनों की अधिकता मृदा को जकड़े रखती है।
लेकिन कृषिगत तथा औद्योगिक आवश्यकता की पूर्ति की खातिर जंगलों का बड़े पैमाने पर सफाया हो रहा है। ऐसे भू-क्षेत्र बाढ़ के जल को रोके रखने में अक्षम होते हैं, नतीजा तबाही आती है। वर्षा के आगमन से पूर्व जलस्रोतों से गादों की सफाई होनी चाहिए थी। लाखों तालाब तथा डोभा का निर्माण कराये जाने के साथ लोगों को ‘वर्षा जल संग्रहण’ के लिए जागरुक किया जाना चाहिए था। लेकिन, यह सब नहीं किया गया। नतीजा, हमारे सामने है।
हालांकि, बाढ़ आने पर पर्यावरणविदों तथा देश के कथित बौद्धिक वर्ग के लोगों के बीच विकास और पर्यावरण में संतुलन विषय पर चचार्ओं और चिंतन का दौर शुरू हो जाता है, लेकिन बाढ़ का पानी जैसे-जैसे कम होता जाता है, उसी अनुपात में पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा भी गौण होने लगता है। 2013 में उत्तराखंड, 2014 में जम्मू-कश्मीर तथा 2015 में तमिलनाडु में आई बाढ़ जनित विपदा के बाद उम्मीद थी कि मौजूदा हालात बदलेंगे,
लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात होता नजर आया है। मशहूर पर्यावरणविद सुंदरलाल बहगुणा, जल-पुरुष राजेन्द्र सिंह, सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटेकर जैसे लोग लंबे समय से इस दिशा में सरकार को आगाह करने का काम कर रहे हैं, लेकिन उनकी बातों को न तो सुना जाता है और न तो उसपर चर्चा ही होती है। आज जरुरत है विकास के सततपोषणीय स्वरुप को अपनाने की।
हालांकि, प्राकृतिक आपदाएं प्रकृति की एक नियमित प्रक्रियाएं होती हैं। ऐसा नहीं है कि पहले प्रकृति में ये सारी क्रियाएं नहीं होती थीं, लेकिन उसकी सीमा निश्चित थी और उससे नुकसान भी नाममात्र का होता था। अब विकास की अंधी दौड़ में हम शायद यह भूल गए हैं कि वैकासिक आवश्यकताओं की पूर्ति के दौरान प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता होती है।
ऐसा न करने पर कालांतर में हमें प्रकृति के कोप का भाजन बनना पड़ता है। विगत कुछ वर्षों में भूकंप, सुनामी, बाढ़, सूखा जैसी आपदाओं ने धरा पर क्षणिक समयंतराल में दस्तक देना शुरू किया है, जिससे हर साल लाखों लोग हताहत होते हैं। दूसरी तरफ, आपदा प्रबंधन के ठोस और तात्कालिक उपाय के अभाव में सुरक्षित बचे लोग भी जान गवां देते हैं।
विकसित देशों में आपदा प्रबंधन एक महत्वपूर्ण प्राथमिकता है, जबकि विकासशील देशों में इसपर गंभीरता से विचार नहीं किया जा रहा है। जरुरी यह है कि आपदाओं से निपटने की रणनीति के तहत सबसे पहले नागरिकों को जागरुक किया जाय।
आमतौर पर देखा यह जाता है कि आवश्यक जानकारी व जागरुकता के अभाव में जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग घबराहट अथवा उपाय न सूझता देख अपना बहुमूल्य जीवन गंवा देते हैं। बहरहाल, हम प्रकृति संरक्षक बनकर आपदाओं को आने से रोक तो नहीं सकते, किंतु उसके असर को कम-से-कम जरुर कर सकते हैं।
-सुधीर कुमार
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