देश के ज्यादातर क्षेत्र में मानसून ने जोरदार दस्तक दे दी है, लेकिन कई इलाके बाढ़ में डूबने की त्रासदी झेल रहे हैं। इस कारण ऊंचे इलाकों में तो हरियाली दिख रही है, किंतु निचले क्षेत्रों में फसले चौपट हो गई हैं। असम के करीमगंज जिले में सुप्राकांधी गांव ने जल समाधि ले ली है। काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में 7 गैंडे समेत 90 वन्य प्राणी और 80 लोग अब तक मारे जा चुके हैं।
बाढ़ का संकट झेल रहे असम का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी दौरा करना पड़ा है। राजस्थान और गुजरात का भी बुरा हाल है। जयपुर एवं उदयपुर समेत 23 जिले बाढ़ग्रस्त घोषित किए गए हैं। 64 लोग अमर्यादित लहरों ने लील लिए हैं। लोगों को बचाने के लिए सेना को बुलाना पड़ा है।
जालोर जिले की पथमेड़ा गोशाला में पानी भर जाने से 536 गायों की मौत हो गई। करीब 14 हजार कमजोर वृद्ध व बीमार नर गोवंश बाढ़ की चपेट में है। यहां केंद्रीय मंत्री स्मृती इरानी और मुख्यमंंत्री वसुंधरा राजे ने नौका से बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों का जायजा लिया। प्रधानमंत्री के गृह प्रदेश गुजरात में और भी बुरा हाल है। यहां अब तक 218 लोग मारे जा चुके हैं। बनासकांठा जिला भी बाढ़ की चपेट में है। यहां एक परिवार के मकान में पानी भर जाने से 17 लोग काल के गाल में समा गए हैं।
बाढ़ की कमोबेश यही तस्वीर महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में है। बद्रीनाथ में भू-स्खलन जारी है। नदी-नाले उफान पर हैं। कई बड़े बांधों के भर जाने के बाद दरवाजे खोल देने से त्रासदी और भयावह हो गई है। घरों, सड़कों, बाजारों, खेतों और रेल पटरियों के डूब जाने से अरबों रुपए की संपत्ति नष्ट हो गई है।
बाढ़ की त्रासदी अब देश में नियमित हो गई है। जो जल जीवन के लिए जीवनदायी वरदान है, वही अभिशाप साबित हो रहा है। इन आपदाओं के बाद केंद्र और राज्य सरकारें आपदा प्रबंधन पर अरबों रुपए खर्च करती हैं। करोड़ों रुपए बतौर मुआवजा देती हैं, बाबजूद आदमी है कि आपदा का संकट झेलते रहने को मजबूर बना हुआ है। बारिश का 90 प्रतिशत पानी तबाही मचाता हुआ अपना खेल खेलता हुआ समुद्र में समा जाता है। यह संपत्ति की बरबादी तो करता ही है, खेतों की उपजाऊ मिट्टी भी बहाकर समुद्र में ले जाता है।
आफत की बारिश के चलते डूबने आने वाले अहमदाबाद, जयपुर, उदयपुर, बनासकांठा इत्यादि शहरों ने संकेत दिया है कि तकनीकी रूप से स्मार्ट सिटी बनाने से पहले शहरों में वर्षा जल की निकासी का समुचित ढांचा खड़ा करने की जरूरत है, लेकिन हमारे नीति नियंता हैं कि कुदरत के कठोर संकेतों से आंखें चुराने का काम कर रहे हैं। जबकि उत्तराखण्ड में देवभूमि और कश्मीर में हम तबाही देख चुके हैं।
इस स्थिति से गुरूग्राम, चैन्नई, बैंग्लुरू और भोपाल भी गुजर चुके हैं। बावजूद इसके प्रलंयकारी बाढ़ की आशंकाओं को नजरअंदाज कर रहे हैं। बाढ़ की यह स्थिति शहरों में ही नहीं है, असम व बिहार जैसे वे राज्य भी झेल रहे हैं, जहां बाढ़ दशकों से आफत का पानी लाकर हजारों ग्रामों को डूबो देती है।
आफत की यह बारिश इस बात की चेतावनी है कि हमारे नीति-नियंता, देश और समाज के जागरूक प्रतिनिधि के रूप में दूरदृष्टि से काम नहीं ले रहे हैं। पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के मसलों के परिप्रेक्ष्य में चिंतित नहीं हैं। 2008 में जलवायु परिवर्तन के अंतरसकारी समूह ने रिपोर्ट दी थी कि धरती पर बढ़ रहे तापमान के चलते भारत ही नहीं, दुनिया भर में वर्षाचक्र में बदलाव होने वाले हैं।
इसका सबसे ज्यादा असर महानगरों पर पड़ेगा। इस लिहाज से शहरों में जल-प्रबंधन व निकासी के असरकारी उपायों की जरूरत है। इस रिपोर्ट के मिलने के तत्काल बाद केंद्र की तत्कालीन संप्रग सरकार ने राज्य स्तर पर पर्यावरण सरंक्षण परियोजनाएं तैयार करने की हिदायत दी थी। लेकिन देश के किसी भी राज्य ने इस अहम् सलाह पर गौर नहीं किया। इसी का नतीजा है कि हम निरंतर जल त्रासदियां भुगतने को विवश हो रहे हैं।
यही नहीं शहरीकरण पर अंकुश लगाने की बजाय, ऐसे उपायों को बढ़ावा दे रहे हैं, जिससे उत्तरोतर शहरों की आबादी बढ़ती रहे। यदि यह सिलसिला इन त्रासदियों को भुगतने के बावजूद जारी रहता है, तो ध्यान रहे 2031 तक भारत की शहरी आबादी 20 करोड़ से बढ़कर 60 करोड़ हो जाएगी। जो देश की कुल आबादी की 40 प्रतिशत होगी। ऐसे में शहरों की क्या नारकीय स्थिति बनेगी, इसकी कल्पना भी असंभव है?
वैसे, धरती के गर्म और ठंडी होते रहने का क्रम उसकी प्रकृति का हिस्सा है। इसका प्रभाव पूरे जैवमंडल पर पड़ता है, जिससे जैविक विविधता का आस्तित्व बना रहता है। लेकिन कुछ वर्षों से पृथ्वी के तापमान में वृद्घि की रफ्तार बहुत तेज हुई है।
इससे वायुमंडल का संतुलन बिगड़ रहा है। यह स्थिति प्रकृति में अतिरिक्त मानवीय दखल से पैदा हो रही है। इसलिए इस पर नियंत्रण संभव है। सयुंक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन समिति के वैज्ञानिकों ने तो यहां तक कहा था कि ‘तापमान में वृद्घि न केवल मौसम का मिजाज बदल रही है, बल्कि कीटनाशक दवाओं से निष्प्रभावी रहने वाले विषाणुओं-जीवाणुओं, गंभीर बीमारियों, सामाजिक संघर्षों और व्यक्तियों में मानसिक तनाव बढ़ाने का काम भी कर रही है। साफ है, जो लोग एक सप्ताह से ज्यादा दिनों तक बाढ़ का संकट झेलने को अभिशप्त हैं, वह जरूर संभावित तनाव की त्रासदी को भोग रहे होगें?
दरअसल, पर्यावरण के असंतुलन के कारण गर्मी, बारिश और ठंड का संतुलन भी बिगड़ता है। इसका सीधा असर मानव स्वास्थ्य और कृषि की पैदावार व फसल की पौष्टिकता पर पड़ता है। यदि मौसम में आ रहे बदलाव से पांच साल के भीतर घटी प्राकृतिक आपदाओं और संक्रामक रोगों की पड़ताल की जाए तो वे हैरानी में डालने वाले हैं।
तापमान में उतार-चढ़ाव से ‘हिट स्ट्रेस हाइपरथर्मिया‘ जैसी समस्याएं दिल व सांस संबंधी रोगों से मृत्युदर में इजाफा हो सकता है। पश्चिमी यूरोप में 2003 में दर्ज रिकॉर्ड उच्च तापमान से 70 हजार से अधिक मौतों का संबंध था। बढ़ते तापमान के कारण प्रदूषण में वृद्घि दमा का कारण है। दुनिया में करीब 30 करोड़ लोग इसी वजह से दमा के शिकार हैं। पूरे भारत में 5 करोड़ और अकेली दिल्ली में 9 लाख लोग दमा के मरीज हैं। अब बाढ़ प्रभावित समूचे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में दमा के मरीजों की और संख्या बढ़ना तय है।
बाढ़ के दूषित जल से डायरिया व आंख के संक्रमण का खतरा बढ़ता है। भारत में डायरिया से हर साल करीब 18 लाख लोगों की मौत हो रही है। बाढ़ के समय रुके दूषित जल से डेंगू और मलेरिया के मच्छर पनपकर कहर ढाते हैं। तय है,बाढ़ थमने के बाद, बाढ़ प्रभावित शहरों को बहुआयामी संकटों का सामना करना होगा। बहरहाल जलवायु में आ रहे बदलाव के चलते यह तो तय है कि प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति बढ़ रही है।
इस लिहाज से जरूरी है कि शहरों के पानी का ऐसा प्रबंध किया जाए कि उसका जल भराव नदियों और बांधों में हो, जिससे आफत की बरसात के पानी का उपयोग जल की कमी से जूझ रहे क्षेत्रों में किया जा सके। साथ ही शहरों की बढ़ती आबादी को नियंत्रित करने के लिए कृषि आधारित देशज ग्रामीण विकास पर ध्यान दिया जाए। क्योंकि ये आपदाएं स्पष्ट संकेत दे रही है कि अनियंत्रित शहरीकरण और कामचलाऊ तौर-तरीकों से समस्याएं घटने की बजाय बढ़ेंगी ही?
-प्रमोद भार्गव
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