बहुत ही दु:ख की बात है कि मध्यप्रदेश के शिवपुरी में बाढ़ दौरान टावर पर चढ़कर बैठे 12 व्यक्ति बचाव टीम का इंतजार कर रहे थे कि अचानक टावर ही बाढ़ के पानी में बह गया। देश के आधे दर्जन से अधिक राज्यों में बाढ़ की समस्या बनी हुई है। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश सहित कई राज्यों में इस बार बादल फटने की जितनी भी घटनाएं सामने आई हैं, उतनी पहले दो दशकों में सामने नहीं आई। इस तरह पहाड़ दरकने व पत्थर गिरने की घटनाएं भी सामने आई हैं जो कि बेहद चिंता का विषय हैं। मृतकों के परिवारों के लिए मुआवजा राशि देने के बाद यह सारी घटनाएंं तब तक भुला दी जाएंगी जब तक फिर से ऐसी घटनाएं दोबारा से न घटें।
सांसद में पैगासस व अन्य कई मुद्दों में बाढ़ के मुद्दे गायब होकर रह गए हैं। विपक्षी पार्टियों को बाढ़ की समस्या से अधिक चिंता अपने नेताओं के फोनों की जासूसी होने की है। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में सत्ताधारी व विपक्षी पार्टियों के नेता कोई दौरा कर या प्रभावित लोगों की मदद करते कहीं नजर नहीं आ रहे। सांसद में कहीं यह शब्द सुनने को नहीं मिल रहे कि बाढ़ की रोकथाम के लिए या नुक्सान घटाने के लिए प्रयास किए जा रहे हों। राजनीति में किसी पार्टी २की रैली को रोके जाने से कोई और बड़ी मुसीबत नहीं। यहां जनता के मामलों की चिंता बहुत ही कम है। एक नेता या पार्टी के खिलाफ कोई आपत्तिजनक टिप्पणी आती है तो हर तरफ शोर मच जाता है लेकिन इतने बड़े स्तर पर आई बाढ़ की समस्या को लेकर हर तरफ चुप्पी छाई हुई है।
असल में राजनेताओं को याद रखना चाहिए कि बाढ़ हमारे ही देश में आई है। यह किसी अन्य देश की घटनाएं नहीं है। उत्तराखंड में बाढ़ ने 2013 में भयंकर तबाही मचाई थी, उससे किसी ने क्या सीख ली? एनडीआरएफ की स्थापना हुई लेकिन इस संस्था के पूरे देश में सिर्फ 3 सैंटर ही हैं। कर्मचारियों की कमी हमेशा चुभती रहती है। पहाड़ी प्रदेशों में अवैध माईनिंग व वृक्षों की कटाई से हो रही चोरी का सिलसिला लगातार जारी है। यह सभी मुद्दे संसद की बहस से बाहर हैं। लोगों के चुने हुए नेताओं को बाढ़ के प्रकोप का सामना कर रहे लोगों के मुद्दे पर भी बोलने की जहमत उठानी चाहिए क्योंकि संसद लोगों के मामलों पर विचार करने की ही जगह है।
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