बिहार में दिमागी बुखार ने 80 से अधिक बच्चों की जान ले ली है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने इस घटना को गंभीरता से लिया और राज्य के अस्पतालों का दौरा किया। स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में बिहार में एक बार फिर 1990 दशक के से हालात दिखे। नीतीश अपनी जिम्मेदारी निभाने की अपेक्षा ज्यादा ध्यान राजनीतिक संतुलन कायम करने में जुटे हुए हैं। वे अपनी सहयोगी पार्टी भाजपा को अपनी हैसियत का एहसास करवा रहे हैं। बिहार में नीतीश कुमार की छवि एक मुख्यमंत्री के तौर पर बेहतर शासन-प्रशासन देने के लिए सुशासन बाबू के नाम से जानी जाती रही है।
यह भी कहा जाता रहा है कि लालू राज में अस्पतालों में आॅप्रेशन मोमबत्ती की रोशनी में होते थे और नीतीश सरकार के आने पर सुधार हुआ लेकिन जैसे-जैसे वह सत्ता में रहकर काम करते गए, शासन प्रशासन की अपेक्षा उन्होंने राजनीतिक दाव-पेंच ज्यादा खेले। हैरानी की बात यह है कि शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं के लिए बदहाल राज्य में इस वक्त राजनीति चरम पर है लेकिन राज्य सरकार जनता को मिलने वाली मूलभूत सुविधाओं के लिए गंभीर नहीं। केवल दिमागी बुखार ही नहीं, गर्मी के कारण भी कई व्यक्तियों की मौतें हो गई। लू लगने के कारण एक दिन में 37 व्यक्तियों की मौत होना चिंता का विषय है।
बिहार के स्वास्थ्य विभाग से मिले आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2015 में इस बीमारी से 11, वर्ष 2016 में चार, वर्ष 2017 में 11 और 2018 सात बच्चों की जान गई थी जबकि 2012 में इस बीमारी से 120 बच्चों की मौत हुई थी। लेकिन, इस साल स्वास्थ्य सेवाओं में ढिलाई आ गई, नतीजतन ज्यादा बच्चों की मौत हुई। जहां तक स्वास्थ्य सेवाओं का संबंध है, पिछले साल बिहार की राजधानी में स्थित देश का तीसरा सबसे बड़ा अस्पताल नालंदा मेडिकल कालेज व अस्पताल बारिश के पानी से भर गया था। अस्पताल के वार्डों में मछलियां तैरने लगी थी। वार्डों में भरे पानी में ही स्वास्थ्य कर्मी मरीजों का इलाज करते रहे।
जब बात डिजीटल या नए बिहार की हो रही हो, तब स्वास्थ्य सुविधाओं के अधूरे प्रबंध महसूस होना लाजिमी है। सत्तापक्ष को राजनीतिक गतिविधियों की तरफ ध्यान सीमित कर प्रशासनिक जिम्मेवारियों पर ध्यान देना चाहिए।
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