मुसीबत में फंसे किसान, बर्बाद होती फसलें

Crop Prices, Government, Hindi Editorial

       थॉमस जेफरसन ने कहा था ‘‘कृषि सर्वोत्तम व्यवसाय है, क्योंकि अंतत: यह सर्वाधिक वास्तविक संपत्ति अर्जन करने, नैतिक मूल्यों के निर्माण और खुशहाली पैदा करने में योगदान करेगी।’’ जेफरसन इस सभ्यता के सबसे बुद्धिमान व्यक्तियों में से एक हैं किंतु इस मामले में वे भी गलत साबित हुए हैं। भारत की अर्थव्यवस्था प्रगति की ओर बढ़ रही हो किंतु यहां कृषि की दशा आज भी दयनीय है। यहां कृषि करोड़ों लोगों की आजीविका है किंतु देश की कुल अर्थव्यवस्था में उसका योगदान अंशमात्र है और यह अनेक समस्याओं से जूझ रही है। खाद्यान्न उत्पादन में एक समय भारत गौरवान्वित महसूस करता था, किंतु पिछले दशक में खाद्यान्न उत्पादन जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में नहीं रहा है।
भारत के किसानों की समस्याओं को नेताओं द्वारा नजरंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि आज भी देश की दो तिहाई जनसंख्या गांवों में निवास करती है और वह अपनी फसलों से दुखी होकर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। जब भारत स्वतंत्र हुआ था तो अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान 50 प्रतिशत था और आज यह 14 प्रतिशत रह गया है। उस समय कृषि में रोजगार 88 प्रतिशत था जो आज 66 प्रतिशत रह गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरी में भारी गिरावट आयी है। अर्ध शुष्क ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि संकट पैदा हो गया है। वहां बार बार फसल बर्बाद होती है, लोग कृषि कार्य छोड़ रहे हैं, उन्हें जलवायु और गैर-जलवायु जोखिमों का सामना करना पड़ रहा है। सिंचाई सुविधाओं वाले किसान ही खेती कर रहे हैं।
अपने को खेती से बचाने के लिए ग्रामीण युवा शहरों की ओर जा रहे हैं और वहां पर शारीरिक श्रम करते हैं। भारत में शहरों का तेजी से विस्तार हो रहा है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों से युवक रोजगार और आर्थिक अवसरों की तलाश में शहरों की ओर भाग रहे हैं और 2001 से 2011 के बीच इस पलायन के कारण किसानों की संख्या में 77 लाख की कमी आयी है। सूखे खेत, जली फसलें, बेकार पशु धन आदि के कारण किसान आत्महत्या कर रहे है। जिसके चलते वे अपने ऋण का भुगतान नहीं कर पाते। शारीरिक श्रम की खोज में हजारों किसानों ने खेती छोड़ दी है। एक आकलन के अनुसार देश में प्रत्येक मिनट ग्रामीण क्षेत्रों से 30 लोग शहरी क्षेत्रों की ओर पलयान करते हैं और इस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा कष्ट महिलाओं को सहना पड़ता है और महिला सीमान्त कृषि श्रमिकों की संख्या में वृद्धि हुई है, हालांकि उन महिला किसानों की संख्या जो 2001 में 14 प्रतिशत थी 2011 तक घटकर 10 प्रतिशत रह गयी है।
समय के साथ गरीब किसानों की दशा में निरंतर गिरावट आ रही है। राष्टÑीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार पिछले दशक में भारतीय किसान परिवारों मेें ऋण 400 प्रतिशत बढ़ा है जबकि उनकी आय में 300 प्रतिशत की कमी हुई है। इस अवधि में अत्यधिक ऋण वाले किसान परिवारों की संख्या भी बढ़ी है। अधिकतर किसान गरीबी के दुश्चक्र में फंसे पड़े हैं और उनकी स्थिति किसान से बटायेदार और फिर बटायेदार से खेतिहर मजदूर और फिर खेतिहर मजदूर से कृषि मजदूर बन जाती है और अंतत: वे खेती से पलायन कर देते हैं और आज स्थिति यह बन गयी है कि गरीब किसान हमेशा गरीब ही बना रहता है। नाबार्ड के तत्वावधान में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 93 प्रतिशत सरकारी सब्सिडी का उपयोग बड़े और मध्यम किसान कर रहे हैं और छोटे किसानों की सब्सिडी कम हुई है।
सर्वेक्षण से यह भी पता चला है कि सब्सिडी आवश्यकता के अनुसार नहीं अपितु राजनीतिक कारणों से दी जाती है। इस अध्ययन के अनुसार पंजाब में 88 प्रतिशत किसान ऋणग्रस्त हैं और छोटे किसानों में उनकी संख्या 90 प्रतिशत तक है। सीमान्त और छोटे किसानों पर बड़े किसानों की तुलना में छह गुना अधिक ऋण है। किसानों में खेती करना तथा अपने परिवार और समुदाय के लिए खाद्यान्न उत्पादन करने की भावना रहती है और इस भावना को पूरा करने के लिए किसान जोखिम उठाते हैं और यदि वे इस प्रयास में विफल होते हैं तो उनमें निराशा होती है। किसान किसी भी कीमत पर अपनी जमीन छोड़ना नहीं चाहता है। वह हमेशा खेती की मिट्टी से लिपटे रहना चाहता है। किंतु अब यह स्थिति नहीं है।
वस्तुत: भारत में भारत कृषि भूमि के मामले में विश्व में दूसरे स्थान पर है। इंडिया ब्रांड ईक्विटी फाउंडेशन के अनुसार भारत में 157.35 मिलियन हेक्टेयर जोत है जिससे भारत इस मामले में विश्व में दूसरे स्थान पर है। पहले स्थान पर संयुक्त राज्य अमरीका है। इसका तात्पर्य है कि भारत में खेती करने के लिए पर्या΄त भूमि है और यदि इस भूमि में से कुछ अन्य प्रयोजनों के लिए भी ली जाती है फिर भी खेती के लिए पर्या΄त भूमि बचती है, किंतु भारत में खेती की समस्याएं बहुत बड़ी हैं।
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1947 में कहा था ‘‘हर चीज रोकी जा सकती है, किंतु कृषि नहीं और इसीलिए प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि पर ध्यान केन्द्रित किया गया था और अब 70 वर्ष बाद भी उनके सपने पूरे नहीं हुए हैं। किसानों की समस्याओं को हल करने के लाभों को बहुत पहले समझा जा चुका था। इस संबंध में एक पुरानी कहावत है ‘‘अथक परिश्रम करने वाले किसानों, विद्वान व्यक्तियों और ईमानदार व्यापारियों से देश का निर्माण होता है। एक आदर्श देश की पहचान यह है कि वहां पर लोग स्वेच्छा से सभी करों का भुगतान करते हैं।’’ भारत में एक आर्थिक आंदोलन की आवश्यकता है। मोइन काजी