महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के किसान इस बात से भी परेशान और आक्रोशित हैं कि अच्छे मानसून से अच्छी फसल हुई है। इससे कई फसलों के दाम घट गए हैं। उदाहरण के लिए, प्याज, अंगूर, सोयाबीन, मैथी और मिर्च की हालत काफी मंदी है। भारत में सरकार फसलों की कीमत तय करती है और उत्पादन को प्रोत्साहित और आमदनी सुनिश्चित करने के लिए किसानों से फसल ख़रीदती है, लेकिन यादातर जगहों पर सरकारें किसानों को फायदे लायक भुगतान नहीं कर पाई हैं।
कुछ लोग मानते हैं कि पिछले साल मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले ने फसलों के दाम को प्रभावित किया है। हालांकि अब पहले जैसी कैश की समस्या नहीं है, लेकिन उपलब्धता की दिक्कत अब भी है।
अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंधों पर भारतीय अनुसंधान परिषद में कृषि मामलों के जानकार अशोक गुलाटी कहते हैं, ‘अगर बारिश अच्छी हो तो आपकी पैदावार अच्छी होती है और दाम घट जाते हैं। इस तरह अतिरिक्त पैदावार की चोट किसानों पर पड़ती है और यह भारत में फसलों की कीमत तय किए जाने के तरीकों की ख़ामियां भी उजागर करती है। प्याज का ही उदाहरण ले लें। प्याज में 85 फीसदी पानी होता है और सूखने पर इसका वजन तेजी से घटता है।
प्राय: व्यापारी किसानों से फसल खरीदकर उसे तिरपाल से ढककर रखते हैं। मौसम ठीक रहा तो रखी गई फसल का 3 से 5 फीसदी हिस्सा ही खराब होता है, लेकिन पारा चढ़ने पर ज्यादा प्याज सूखती है और कई बार 25 से 30 फीसदी फसल भी बर्बाद हो जाती है।
हालांकि आधुनिक कोल्ड स्टोरेज में प्याज 4 डिग्री सेल्सियस पर लकड़ी के बक्सों में रखी जा सकती है। यहां फसल का अधिकतम 5 फीसदी हिस्सा खराब होने की आशंका होती है। एक किलो प्याज को एक महीने के लिए स्टोर करने में एक रुपये से भी कम खर्च होता है।
भारत के पास पर्याप्त संख्या में कोल्ड स्टोरेज नहीं हैं। कुल करीब 7 हजार कोल्ड स्टोरेज हैं, जिनमें से ज्यादातर उत्तर प्रदेश में आलू से भरे रहते हैं। इसलिए फल और सब्जियां जल्दी खराब होती हैं। जब तक भारत में फसलों का स्टोरेज बेहतर नहीं होता, अतिरिक्त फसल किसानों के लिए बर्बादी ही ला सकती है।
दूसरा, फूड प्रोसेसिंग इतनी नहीं होती कि फसलों को ख़राब होने से रोका जा सके। दोबारा प्याज का उदाहरण देखिए। प्याज की घटती-बढ़ती कीमतों पर काबू करने का एक तरीका यह है कि उन्हें ‘डिहाइड्रेट’ कर दिया जाए और प्रोसेस्ड प्याज की उपलब्धता बढ़ाई जाए। लेकिन अभी भारत के कुल उत्पादन की सिर्फ 5 फीसदी फल और सब्जियां प्रोसेस की जाती हैं।
साफ है कि भारत में कृषि नीतियों को जबरदस्त बदलाव की जरूरत है। भारत का अन्न भंडार कहा जाने वाला पंजाब इसका उदाहरण है। ऐसे समय में जब भारत में अन्न की कोई कमी नहीं होती, इसके फसली क्षेत्र और भूजल इस्तेमाल का 80 फीसदी गेहूं और चावल में लगता है। अनाज के बढ़ते उत्पादन का मतलब है कि धान और गेहूं की कीमतें नहीं बढ़ रही हैं और किसानों को कोई लाभ नहीं हो रहा है।
‘रीस्टार्ट: द लास्ट चांस फॉर द इंडियन इकोनॉमी’ के लेखक मिहिर शर्मा कहते हैं, ‘नीतियां किसानों के पास कोई विकल्प नहीं छोड़तीं। जिन किसानों को हर साल महंगी होतीं सब्जियां उगानी चाहिए, वे गेहूं उगा रहे हैं, जिसकी हमें जरूरत ही नहीं है, लेकिन यहां सरकार यह अच्छी चीज करती है कि बिना देरी किए फसल खरीदने की कीमतें बढ़ा देती है और किसान कष्ट से बच जाते हैं।
उत्तर प्रदेश की नई बीजेपी सरकार को भी अतिरिक्त पैदावार का सामना करना पड़ा, लेकिन उसने आलू का खरीद मूल्य बढ़ाने और फिर ‘विवादित’ कर्जमाफी के ऐलान में देर नहीं की। इससे वहां किसानों का गुस्सा दब गया।
-सौतिक बिश्वास
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