शिक्षा ढांचे में गिरावट

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पिछले दिनों हरियाणा में एक स्कूली विद्यार्थी ने अध्यापक पर हंसिये से हमला कर दिया। चर्चा इस बात की है कि बच्चे ने हमला इसीलिए किया कि कम अंक आने के कारण अध्यापक उसके पिता को जानकारी देगा। दूसरी तरफ देश के कुछ हिस्सों में अध्यापकों द्वारा मासूम विद्यार्थियों की मारपीट की घटनाएं घटित हुई।

स्कूल सरकारी हो या प्राइवेट दोनों प्रकार के स्कूलों में इस प्रकार की घटनाएं होती हैं। कई मामले तो थाने में भी पहुंचते हैं। इन घटनाओं में कोई भी घटना हो एक ही कारण शिक्षा के मनोवैज्ञानिक पक्ष को नजरअंदाज करना है। शिक्षा का संबंध केवल विद्यार्थी व अध्यापक में नहीं बल्कि इसमें अभिभावकों की कड़ी भी अहम है।

भारतीय शिक्षा जगत पर मनोवैज्ञानिक जानकारी का कोई अस्तित्व ही नहीं। विद्यार्थी, अध्यापक व अभिभावक तीनों एक कड़ी बनने की बजाए तालमेल गंवा चुके है व खुद की धारणा अनुसार शिक्षा को विभिन्न दिशाओं की तरफ ले जा रहे हैं। इन हालातों में अप्रिय घटनाओं के होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

शिक्षा ज्ञान है, जिसे कुछ अभिभावकों ने केवल अंकों की प्राप्ति तक ही सीमित कर दिया है। बच्चों से ज्यादा से ज्यादा अंक प्राप्त करने की इच्छा बच्चे के दिल में दहशत पैदा करती है। यही कारण है कि हर साल किसी कारण मैरिट से चूक जाने पर बच्चे खुदकुशी करने जैसे कदम उठाते हैं। अभिभावक व अध्यापक दोनों बाल मनोविज्ञान व शिक्षा के संबंधों से अनजान होने के कारण बच्चे को केवल ‘रट्टू’ बना देते है।

अध्यापक बच्चे को समझाने के लिए मनोवैज्ञानिक तरीका अपनाने की बजाए डंडा उठा लेते है। स्कूल में फिर पुलिस थाने जैसा माहौल बन जाता है। बच्चों को शारीरिक सजा न देने पर सरकारी आदेश भी अध्यापक के गुस्से के सामने उड़ जाते हैं। संस्कारों से दूर रहे बच्चे व्यक्ति फिल्मों/सीरियल में हिंसा के दृश्य देखकर स्कूलों में वही हथकंडे प्रयोग करते हैं।

शिक्षा में आ रही गिरावट दूर करने के लिए केवल शिक्षा विशेषज्ञों के सेमीनार या विभागों की बैठकें ही काफी नहीं। यह बैठकें एकतरफा है। शिक्षा विभाग शिक्षा प्रोगामों में अध्यापकों, शिक्षा विशेषज्ञों के साथ-साथ अभिभावकों को शामिल करे ताकि जो अभिभावक शिक्षा को केवल अंक देने वाली मशीन ना समझें।

जहां तक अध्यापकों का शिक्षा कोर्सों व प्रशिक्षण का संबंध है मनोवैज्ञानिक अध्ययन को नजरअंदाज कर दिया जाता है, विशेष तौर पर अध्यापकों के लिए तो इसका कोई अस्तित्व ही नहीं रह जाता। अध्यापकों व अभिभावकों को बाल मन को समझने की आवश्यकता है।

 

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