आमेरे परम मित्र शर्मा जी इन दिनों बेहद खफा हैं। दरअसल, वे खफा आॅफलाइन मित्रों से नहीं, बल्कि आॅनलाइन मित्रों से हैं। भड़ककर कहते हैं-‘भला! यह भी कोई बात हुई। चार हजार फेसबुक फ्रेंड और लाइक मात्र सात सौ। भई, बहुत हो गई, अब निष्क्रिय दोस्तों को बाहर का रास्ता दिखाना ही होगा। ‘शर्मा जी की मनोस्थिति समझ मैंने शीतलता प्रदान करने के लिए पूछा कि आप रोजाना पोस्ट क्यों डाला करते हो? इस सवाल पर भी वे भड़क गये और बोले-रोजाना क्यूं न डालूं पोस्ट, कोई अपराध है क्या?मैंने कहा-ऐसी बात नहीं है शर्मा जी, जिस तरह रोजाना एक ही चीज खाने से मन ऊब जाता है, उसी प्रकार हर रोज पोस्ट देखकर भी लोग परेशान हो जाते हैं। ऐसा कीजिए, आप हफ्ते में एक ही दिन पूरी ऊर्जा के साथ कोई एक पोस्ट किया करें, तब आपको लोग अधिक महत्व देंगे।
इतना सुनने के बाद, वे फिर तपाक से बोले-ये फेसबुक वाले मित्र लिंगानुरुप भेदभाव करते हैं। मैं कितनी भी महत्व की बातें पोस्ट कर दूं, महत्वहीन हो जाता है, क्योंकि मैं एक पुरुष हूं, कुरुप हूं, इसलिए। जबकि, पड़ोसी वर्मा की वाइफ कुछ भी पोस्ट करे, तो चंद सेकेंडों में सैकड़ों लाइक पहुंच जाते हैं। शर्मा जी यहीं चुप नहीं रहते। रहस्यमयी मुद्रा बनाकर आगे कहते हैं कि ये एफबी फ्रेंड भी काफी शातिर हो गये हैं। बताते हैं कि पिछले हफ्ते की ही बात है। पत्नी के साथ एक तस्वीर पोस्ट की और 24 घंटे के भीतर करीबन बारह सौ लाइक मिल गये। जबकि, इसी इफ्ते अपनी एक सिंगल तस्वीर पोस्ट की, तो चार दिन बाद भी बमुश्किल चार सौ लोगों ने लाइक किया।
कुछ अपने थे, जिन्होंने फोटो के साथ ‘नाइस’, ‘नाइस वन’, ‘वाऊ’, ‘गजब’ और ‘उम्दा’ जैसी अतिशयोक्तिपूर्ण तारीफ कर हौसला बढ़ाया था। शेष फ्रेंड मतलबी हो गये हैं। अगर उनकी पोस्ट लाइक न करो, तो वे भी अपनी उंगली पर बेवजह जोर देना नहीं चाहते। कल शाम को ही बता रहे थे कि फेसबुक पर अंध-भक्ति और अंध-विरोध भी जमकर होता है। हर दिन, सरकार के समर्थन और विरोध में दर्जनों पोस्ट किये जाते हैं। उसी पोस्ट के कमेंट बॉक्स में ‘शाब्दिक कुश्ती’ भी देखने को मिल जाते हैं। ‘गाली रुपेण घूंसा’ और ‘अमर्यादित वैचारिक पंच’ से कोई बंदा परास्त हो जाता है, तो कोई अपने आप को विजेता समझ बैठता है।
वहीं, कुछ लोग इस अप्रासंगिक बात-बतंगड़ से पीछे हटकर शांत हो जाते हैं। दरअसल, फेसबुक सिर दर्द, तनाव और अवसाद की गिरफ्त में ले जाने का सशक्त माध्यम बन चुका है। शर्मा जी भी इन बातों को भलीभाँति समझते हैं। लेकिन, स्वीकारने से डरते हैं कि कहीं मैं उन्हें फेसबुक से दूर रहने की बिन मांगी सलाह ना दे दूं। यूं तो, हमारे शर्मा जी पढ़े-लिखे इंसान हैं। अच्छे सरकारी पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। छह महीना पहले ही पोते ने उन्हें फेसबुक चलाना सिखाया था। बाद में तो जैसे शर्मा जी को इसकी लत ही लग गई। देश-विदेश में घटने वाली किसी भी छोटी-बड़ी घटनाओं पर त्वरित प्रतिक्रिया फेसबुक पर उगल देते हैं।
कई बार तो लोग उनका समर्थन करते हैं, तो कई बार उन्हें आलोचनाएं भी सहनी पड़ती हैं। बावजूद इसके, वे खुश हैं कि चलो इसी बहाने बुढ़ापा में कुछ रोमांच तो बना हुआ है। फेसबुक उनके लिए दिल लगाने का अच्छा माध्यम बन गया है। युवा पीढ़ी से आभासी दुनिया में मिलना, सीखना और सीखाना उन्हें खूब रास आ रहा है। अब वो समय भी तो नहीं रहा कि शाम को गांव के किसी चबूतरे पर बैठकर गप्पें मारी जाएं। फेसबुक पर लाइक का गुणा-भाग उनकी समझ से अबतक दूर था। इसलिए, उन्होंने अपनी परेशानी मुझसे साझा की। अब, शर्मा जी ने रोजाना की बजाय, हफ्ते में एक-दो पोस्ट करने का निर्णय लिया है। आशा है, उनके निष्क्रिय मित्र, फिर-से सक्रिय हो उठेंगे।
-सुधीर कुमार