बढ़ती बीमारियों के जमाने में दवाईयां लोगों के लिए जीवन का आम हिस्सा बन गई हैं। एक बच्चे से लेकर एक बूढ़े तक- सबको आजकल दवाइयों की जरूरत पड़ने लगी है। छोटे बच्चों के लिए भी आजकल माता-पिता घरेलू दवाइयों का प्रयोग करना पसंद नहीं कर रहे हैं। तुरंत डॉक्टर के पास जाने लगे हैं। मगर बच्चों के मामलों में ऐसे माता-पिता भी अनगिनत हैं जो एक बार डॉक्टर की दी हुई दवा को अपनी मर्जी मुताबिक चलाते हैं। बड़ों का तो कहना ही क्या? सत्तर प्रतिशत लोगों की स्थिति कुछ ऐसी है कि वे दवा दुकान के मालिक या कम्पाउण्डर से कहकर ही अपनी तकलीफ की दवाइयां ले आते हैं। फायदा हो गया तो ठीक नहीं तो किसी दूसरी दुकान के किसी मालिक या कम्पाउण्डर को पकड़ते हैं। अगर बीमारी पर नियंत्रण हो गया तो आराम से चलाते रहते हैं।
उनकी इतनी दवाइयों को खाकर पेट को एक कबाड़खाना बनाना जरा भी नहीं अखरता। अधिकांश को इस बात की जानकारी भी नहंीं होती कि दवाइयां सिर्फ प्राणों की रक्षा नहीं करती, असंतुलित व अधिक होने पर प्राणलेवा बन जाती है। लेकिन कुछ जान बूझकर व कुछ अज्ञानतावश लोग दुकान से दवा खरीदकर खाते हैं। मतलब अधिकांश लोगों का इलाज डॉक्टरों की जगह कम्पाउण्डरों के हाथ में होता है। मेडिकल शाप वालों की दवाइयों की अच्छी खासी बिक्री भी हो जाती है। इतने जानलेवा प्रयोग के पीछे कारण यह है कि लोगों के पास आर्थिक क्षमता बहुत कम होती है।
या डॉक्टरों तक पहुंच बनाने योग्य क्षमता नहीं होती है। डॉक्टरों की भी अपनी कुछ मजबूरियां होती है। अनेक बीमारियों का पता करने के लिए खून, पेशाब, मल, वीर्य, बलगम, आदि की जांच करवानी पड़ती है। एक्सरे, सोनोग्राफी, स्केनिंग आदि का सहारा लेना पड़ता है। जब तक ये परीक्षण नहीं होंगे तब तक दवा देना उनके वश की बात नहीं होती है और मरीज के पास इतनी आर्थिक क्षमता नहीं होती है कि वह डॉक्टर के मुताबिक जांच करवाकर इलाज कराए और पानी की तरह पैसा बहाए। इसलिए बाहर से दवाइयां खरीदकर खाता रहता है।
जब बीमारी बहुत ज्यादा बढ़ जाती है तो ऋण लेकर भी इलाज कराने की स्थिति सामने आती है। दांतों के दर्द को ही लीजिए। जब दांतों में दर्द होता है तो मरीज दर्द निवारक बाजार से खरीदकर खाताहै, मगर जब फायदा नहीं होता है तो किसी तरह पैसों का इंतजाम कर दंत रोग विशेषज्ञ के पास जाता है। दंत रोग चिकित्सक दांत उखाड़ने के एवज में ही अच्छा-खासा कमा लेता है। फिलिंग, आर.सी.टी, कैपिंग आदि के पीछे मरीजों से सैकड़ों रुपए ऐंठ लेता है। ऐसे ही कुछ सर्जन व हड्डी रोग विशेषज्ञ भी मरीजों से अच्छा खासा वसूलते रहते हैं।
सरकारी अस्पतालों में इलाज की गुणवत्ता उतनी अच्छी नहीं होती, जितनी कि होनी चाहिए। सरकारी डॉक्टर अपने प्राइवेट क्लीनिकों व उनमें आने वाले मरीजों को लेकर ज्यादा सक्रिय होते हैं। वहां से पैसा आता है। सरकारी सेवा की ऐवज में भी उन्हें अच्छी खासी तनख्वाह मिलती है मगर यह तनख्वाह कहीं जाने वाली नहीं, सुरक्षित है। इसलिए अस्पतालों में डॉक्टर कभी खानापूर्ति करते है तो कभी नदारद रहते हैं। महंगी व कारगर दवाइयां भी मरीज को अस्पतालों में नहीं मिलती है। मरीज को काफी कठिनाइयों का सामना करते हुए इलाज करवाना पड़ता है। मरता क्या नहीं करता। डॉक्टरों की नाक में नकेल डालने के लिए कोई उच्चस्तरीय प्रशासनिक पहल नहीं होती है।
कुछ अच्छे डॉक्टर भी होते है, जिन पर मरीजों का विश्वास बैठ जाता है, वे बार-बार उसी डॉक्टर के पास जाना चाहते हैं, मगर उन डॉक्टरों की भी कुछ सीमाएं होती है। इसलिए मरीज अपने डॉक्टर द्वारा एक महीने के लिए लिखी गई दवाइयों को एक साल तक चलाते हैं। इन सब कारणों से ऐसे अनेक मरीज होते हैं,जिनको मरते दम तक यह पता नहीं चलता कि आखिर उसे कौन सी बीमारी है।
-आर. सूर्य कुमारी