प्राचीन काल से ही जग-जननी को संत महात्माओं, पीर-पैगम्बरों ने पूरा मान-सम्मान दिया है। नारी को जगत की उत्पत्ति का आधार बताया गया है। प्रसिद्ध वैज्ञानिकों, लेखकों, नेताओं ने भी नारी को मां, बहन, बेटी, पत्नी के उसके अलग-अलग रूपों में उसकी महानता को स्वीकार किया है। मध्यकाल में नारी घोर यातनाओं एवं भेदभावों से गुजरी। इस काल में नारी को वस्तु तुल्य सम्पत्ति बना दिया गया। पर्दा प्रथा, बाल विवाह, घर की चार-दीवारी में कैद कर नारी को मानसिक व शारीरिक रूप से दुर्बल बना दिया गया। लेकिन इस दौर में भी नारी ने मां, बहन, बेटी व पत्नी के रूप में अपना स्नेह एवं सहयोग समाज निर्माण में दिया। अपनी दुर्बल स्थिति को तब नारी ने घरेलू कार्यों में सिलाई, बुनाई, कढ़ाई, साफ-सफाई आदि में अपना हुनर बनाने में बदल लिया।
मध्यकाल का दौर गुजरा और नारी की स्वतंत्रता व बराबरी की मांग उठी एवं आधुनिकता की ओर बढ़ रहे समाज ने तब नारी की शिक्षा एवं शारीरिक स्वतंत्रता पर सर्वप्रथम अपनी पकड़ को ढीला कर दिया। पश्चिमी जगत ने ये कार्य बड़ी तेजी से किया और शीघ्र ही वहां नारी, समाज में पुरुषों के बराबर एवं कहीं-कहीं उससे भी आगे निकल गई। यूरोप से बाहर जहां कबिलाई संस्कृतियां हावी रहीं या जातिगत संकीर्णताएं रहीं, वहां अवश्य नारी को बहुत संघर्ष करना पड़ा। भारत जैसे देश में कुछेक सामाजिक कुरीतियां, जिनमें कन्या भ्रूण हत्या, दुष्कर्म या अंर्तजातिय विवाह पर रोक की यदि फिलहाल बात न करें, तब शिक्षा, कला, लोकसेवा, राजनीति, व्यवसाय में नारी पुरुष की बराबरी तक पहुंच गई है।
परंतु आधुनिक कहे जाने वाले दौर में भी विश्व स्तर पर नारी को अभी भी कई समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न एवं नारी को कला क्षेत्र में बाजार की वस्तु बनाए जाने की मानसिकता अभी भी पुरुषों में अपराध की हद तक है। मध्य एशिया, अफ्रीका जैसे क्षेत्रों में धर्म के नाम पर नारी का उत्पीड़न पुन: मध्यकाल के दौर में पहुंच चुका है। नारी स्वतंत्रता एवं उसके चहुंमुखी विकास के लिए उपरोक्त समस्याओं का निराकरण करने के लिए समाज के बुद्धिजीवियों, सरकारों को अभी बहुत कार्य करना है एवं स्वयं नारी को भी अपने साथ हो रहे इस भेदभाव के लिए डटे रहना है, ताकि नारी की भावी पीढ़िया वर्तमान नारी विरोधी कुरीतियों से बच सकें।
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