रूस-यूक्रेन युद्ध में बेलारूस का कथित तौर पर शामिल होना चौंकाता नहीं है। इस जंग को लेकर आहट पहले से ही सुनी जा रही थी। रूस पिछले कई वर्षों से यही कहता आ रहा था कि नाटो अपने हथियार लेकर मॉस्को के करीब न आए। लेकिन इसके विपरीत नाटो का न केवल विस्तार होता गया, बल्कि पूर्व के सोवियत संघ के देशों में लोकतंत्र के समर्थन में हुए सत्ता-विरोधी आंदोलन सफलतापूर्वक संपन्न भी हुए। ऐसे में जब रूस की चिढ़ के करीब नाटो पहुंच गया, तो राष्ट्रपति पुतिन ने यूक्रेन पर हमला बोल दिया। जाहिर है, तनाव काफी पहले से था। बेशक, बेलारूस प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से युद्ध का हिस्सा है, लेकिन दबाव रूस पर कहीं ज्यादा है। पश्चिम और पूर्वी यूरोप के देश खुलकर यूक्रेन के समर्थन में आ गए हैं।
नाटो ने भी एलान किया है कि वह भले अपने सैनिकों को यूक्रेन नहीं भेज रहा, लेकिन उसे सभी सैन्य साजो-सामान जरूर मुहैया करा रहा है। यूक्रेन की सरकार ने भी तकरीबन अपने सभी नागरिकों को हथियार दे दिए हैं और वे सभी दुश्मन सेना के खिलाफ मोर्चा संभाल चुके हैं। अब रूस के पास दो ही रास्ते थे। पहला, आर्थिक प्रतिबंधों को देखते हुए वह अपने साथ अन्य देशों को भी जोड़े, और दूसरा उपाय यह था कि अपनी आक्रामकता बढ़ाए। निस्संदेह, रूस ने यूक्रेन के साथ जो किया है, वह संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों के खिलाफ है, लेकिन अमेरिका व उसके सहयोगी देश जो कर रहे थे, वह इन नीतियों के कितनी करीब है, उस पर भी बहस होनी चाहिए, जो शायद ही कभी हो सकेगी। दिक्कत यह भी है कि इस तरह के अंतरराष्ट्रीय संघर्ष तभी होते हैं, जब हर पक्ष खुद को सही और विपक्ष को गलत मान बैठता है। इसलिए, दुनिया के तमाम देशों को इससे ऊपर उठना चाहिए।
भारत फिलहाल इस तनातनी से खुद को अलग रखने में सफल रहा है, लेकिन ऐसा कब तक बना रहेगा, यह कहना मुश्किल है। एक पहल यह भी हो सकती है कि इस युद्ध में सीधे तौर पर शामिल देशों को यह बताया जाए कि रूस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों से परोक्ष रूप से भारत भी प्रभावित हो रहा है। उनको यह एहसास दिलाना होगा कि रूस से निकलकर कंपनियां अगर भारत का रुख करती हैं, तो बेहतर है, अन्यथा इन कंपनियों का अन्य देशों में जाना हमें फायदा नहीं पहुंचाएगा। दरअसल, रूस पर इस तरह के प्रतिबंध लगाए गए हैं, जिनसे यूरोप में फार्मा, कृषि उत्पाद, गैस आदि उत्पादों के आयात प्रभावित नहीं होते। ऐसा इसलिए किया गया है, क्योंकि इनका विकल्प यूरोपीय देशों के पास नहीं है। जब तक अमेरिका उनको कोई विकल्प नहीं देता, रूस से इन चीजों की आपूर्ति होती रहेगी। हमें भी कोई उपाय तलाशना चाहिए।
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