हमारे राजनेताओं द्वारा लगभग तीन दशक पूर्व जातिवाद के जिस जिन्न को पिटारे से खोला गया था वह उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में फिर से अपने जहरीले फन फैलाने लगा है और इसका केन्द्र में भाजपा पर क्या प्रभाव पडेगा। उत्तर प्रदेश में पहले ही इस जातिवाद की हवा दलित और ठाकुरों के बीच और बिहार में दलित और उच्च जातियों के बीच घृणा फैलाना करना शुरू कर दिया है और इस सप्ताह हमें ऐसा जातीय संघर्ष देखने को भी मिला और ये घटनाएं जातिवाद के आधार पर मतभेद को बढावा देती हैं। किंतु किसे परवाह है।
आज के जातिवादी समाज में जहां पर जाति बनाम जाति की लड़ाई होती है और जहां पर जातिवाद किसी नेता के भविष्य का निर्धारण करता है वहां पर कोई भी पार्टी जातीय वोट बैंक को खतरे में डालना नहीं चाहती है और आज इस जातीय वोट बैंक को सत्ता के चश्मे से देखा जाता है जहां पर वर्चस्व स्थापित करने और वोट प्राप्त करने की लड़ाई दिखावा और धारणा की राजनीति में बदल गयी है। यह आज की वास्तविकता को दर्शाता है और देश में व्याप्त सामाजिक-राजनीतिक स्थिति को चरितार्थ करता है।
उत्तर प्रदेश को ही लें। राज्य के हाथरस में चार ठाकुर लड़कों द्वारा एक 19 वर्षीय दलित लड़की के साथ कथित दुराचार की घटना से दोनों जातियां आमने-सामने टकराव के लिए खड़ी हैं और इस टकराव में मुख्यमंत्री ठाकुर योगी आदित्यनाथ और भाजपा फंस गए हैं तथा राज्य में ठाकुर और दलित दोनों की जनसंख्या 20 प्रतिशत है। 2017 के विधान सभा चुनावों में उच्च जातियों का प्रतिनिधित्व 44.4 प्रतिशत तक पहुंचा जोकि 2012 के चुनावों मे 32.7 प्रतिशत था।
निसंदेह उत्तर प्रदेश जातीय हिंसा का इतिहास रहा है और योगी के शासन में इसमें वृद्घि हुई और दलितों पर हमले बढे है । गोरखपुर, सहानरपुर, जौनपुर, आगरा, अयोध्या में ऐसी घटनाएं देखने को मिली हैं। इसका कारण यह है कि ठाकुर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं और दलित अपने अधिकारों के लिए सघर्ष करते हैं तो हिंसा बढ़ती है साथ ही जमींदार अधिकतर ठाकुर हैं जिनका भूमि पर स्वामित्व है और वे दलितों का दमन करते हैं। उच्चतम न्यायालय ने हाथरस की घटना को भयावह बताया है और इससे एक बड़ा विवाद पैदा हो गया है।
2017 के चुनावों में उन्होंने सभी जातियों तक पहुंचने का प्रयास किया था और इसी के चलते राज्य में भाजपा को जीत मिली थी। बिहार में यद्यपि मुख्यमंत्री और जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार एक निर्विवाद नेता के रूप में उभरे हैं जिन्हें कोई चुनौती नहीं दे सकता है और उनका भाजपा के साथ गठबंधन है किंतु हाथरस में दुराचार की घटना के बाद भाजपा के सहयोगी उससे दूर हो रहे हैं। राज्य में राजद लालू यादव अब महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति नहीं रह गए हैं और वे जेल में हैं फिर भी नीतीश की राह आसान नहीं है क्योंकि उनकी कोरोना के बाद लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मुद्दे को ठीक से न संभाल पाने के कारण उनकी लोकप्रियता में गिरावट आई है।
उनके सुशासन का मुद्दा भी अब इतना सफल नहीं रह गया है क्योंकि राज्य में विकास कार्य ठप्प हैं और बीच-बीच में उनके शासन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं जैसे कि सृजन घोटाला है जिसमें भागलपुर कोषागार से 1500 करोड़ रूपए की निकासी का आरोप है और अब इस घोटाले की जांच सीबीआई कर रही है। हालांकि नीतीश का अपना कोई ठोस जातीय आधार नहीं है क्योंकि उन्होंने अपने लिए गैर-यादव, अति और अति पिछडे वर्ग का वोट बैंक बनाया है। राज्य मे उच्च जातियों की जनसंख्या 17 प्रतिशत है जिसमें ब्राहमण 5.7 प्रतिशत और राजपूत 5.2 प्रतिशत हैं। महादलितों सहित दलितों की जनसंख्या 16 प्रतिशत है और यादवों की जनसंख्या 14.4 प्रतिशत है। उच्च जाति के अधिकतर लोग भाजपा के समर्थक हैं और वे जदयू का भी समर्थन करेंगे।
2015 के विधान सभा चुनावों में भाजपा के 54 प्रतिशत विधायक उच्च जातियों के थे जबकि विधान सभा में कुल 21 प्रतिशत विधायक उच्च जातियों के थे। इसके अलावा केन्द्र में भाजपानीत राजग और राज्य में दलितों के नेता के रूप मे रामविलास पासवान के असामयिक निधन से राह और भी मुश्किल हो गई है और उसने आगामी चुनावों के लिए अनिश्चतता बढ़ा दी है क्योंकि लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष और रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान ने अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय किया है। इससे भाजपा और जदयू की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
अब तक राज्य में भाजपा को मुख्य चुनौती कांगे्रस, वामपंथी, राजद के महागठबंधन से मिल रही थी किंतु अब उसके अनेक क्षेत्रीय सहयोगी उसका साथ छोड़ रहे हैं और नीतीश, पासवान की मुत्युु के प्रभाव से चिंतित हैं और इसका लोक जनशक्ति पार्टी के भविष्य पर भी प्रभाव पड़ेगा और नीतीश ने स्वयं अनेक मुददें पर लोक जनशक्ति पार्टी की आलोचना की है। पासवान के निधन के बाद जदयू भी लोक जनशक्ति पार्टी पर हमला नहीं कर सकती है।
भाजपा राज्य में जदयू और केन्द्र में राजग के सहयोगी के रूप में जदयू और लोक जनशक्ति पार्टी के बीच संतुलन बनाने की भूमिका निभा रही है किंतु ऐसी अफवाहें भी उड़ रही हैं कि भाजपा ने ही चिराग को उकसाया है जो पक्के मोदी समर्थक हैं ताकि बिहार में मुख्यमंत्री पर अंकुश लगाया जा सके और यह सुनिश्चित किया जा सक कि नीतीश इतने मजबूत न हो जाएं कि वे 2013 की तरह राजग से अलग हो जाएं।
राज्य में यह पहला चुनाव होगा जिसमें राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद नहीं होंगे। वे जेल में ही बंद है और वहीं से कहेंगे कि मैं मूल धर्मनिरपेक्षतावादी हूँ बाकी सब नौटंकी हैं। आप लोगों को ध्यान होगा कि लालू ने ही बिहार में जातीय राजनीति की शुरूआत की थी और एक नया सत्ता समीकरण बना था। क्या उनके पुत्र तेजस्वी अपनी विरासत को आगे बढ़ा पाएंगे? एक ऐसे वातावरण में जहां पर जातिवाद हावी हो रहा हो त्रासदी यह है कि हमारे नेता इस जातिवादी दानव के दुष्प्रभावों को देखना नहीं चाहते हैं।
हमारे राजनेता इतिहास से भी सबक लेना नहीं चाहते हैं। हमारा इतिहास बताता है कि भारत में सभी संघर्ष जाति पर आधारित रहे हैं। समय आ गया है कि हम कीमत पर सत्ता प्राप्त करने वाले हमारे तुच्छ राजनेता वोट बैंक की राजनीति से परे की सोचें और इसके दीर्घकालीन प्रभावों पर विचार करें। यदि इस प्रवृति पर अभी रोक नहीं लगायी गयी तो यह और बढेगी और इससे हमारे लोकतंत्र के लिए खतरा पैदा हागा। आपका क्या ख्याल है?
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