कृषि एवं किसान कल्याण राज्य मंत्री पुरुषोत्तम रूपाला ने राज्यसभा में प्रश्नकाल के दौरान किसानों को ऋण जाल से मुक्त कराने के उपायों से जुड़े एक सवाल के जवाब में कहा कि आत्महत्या करने वाले किसानों के परिजनों को किसी भी प्रकार से मुआवजा देने का फिलहाल कोई प्रावधान नहीं है। हालांकि इस बयान के बाद कृषि को लेकर राजनीतिक नजरिया बेहद पेचीदा बन गया है। देश व राज्य की नीतियों में इतनी भिन्नता है कि कई बार तो ऐसा महसूस होता है जैसे एक देश की बजाय कई देश हों। केंद्र सरकार व राज्य सरकारों के तर्क भी अलग-अलग हैं। भौगोलिक स्थितियों की भिन्नता के बावजूद कृषि सम्बन्धित नीतियों में समानता होनी आवश्यक है ताकि एक देश में सामान नागरिक होने का एहसास भी हो। तार्किक नीतियां एकता व अखंडता के संकल्प को मजबूत करती हैं। एक तरफ केंद्र प्रत्येक किसान को 6000 रुपए वार्षिक मदद दे रही है।
केंद्र के इन निर्णयों में संयुक्त सूत्र नजर नहीं दिख रहा। पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां की सरकारों ने किसानों का कर्ज माफ किया है। हालांकि किसानों के समर्थन में खड़े कृषि विशेषज्ञ भी इस विचार के समर्थक हैं कि कर्ज माफी कृषि संकट का एकमात्र समाधान नहीं है। पंजाब खुदकुशी पीड़ित परिवार को मुआवजा दे रहा है। कृषि संकट को राजनीतिक पार्टियों ने चुनावों में भी मुद्दा बनाया है और कई राज्यों की सरकारें इस मुद्दे से मुक्कर भी चुकी है। कई राज्यों की सरकारों ने अपने घोषणा पत्र में किए वायदे के अनुसार किसानों का कर्ज भी माफ किया लेकिन, फिर भी कृषि संकट टल नहीं रहा। केंद्र व राज्य सरकारों को मिलकर राजनीतिक कृषि माडल की बजाय एक वैज्ञानिक कृषि मॉडल तैयार करने की आवश्यकता है जिस पर राजनीतिक परछाई न हो और वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री नजरिया अपनाया जाए।
राजनीति ने कृषि संकट का समाधान निकालने की बजाय इसे सत्ता प्राप्ति का एक हथियार बना लिया है। मौजूदा रिपोर्टों के अनुसार कृषि की विकास दर घटकर आधी रह गई है। यूनिवर्सिटियों में लगते कृषि मेले व राजनीतिक घोषणाओं में कोई तालमेल ही नहीं। निसंदेह कृषि वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों के सुझावों व मॉडलों को लागू करने की जिम्मेदारी राजनेताओं ने ही निभानी है। नेता राजनीतिक स्वार्थ को तिलांजलि देकर कृषि का सही माडल लागू करें। कृषि प्रधान देश में एक स्पष्ट, सर्वमान्य व वैज्ञानिक नीति बनाई जाए।
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