आज जब निवेश के ढेर सारे विकल्प मौजूद हैं तो अधिकतर निवेशकों को यह उलझन रहती है कि किस विकल्प में निवेश किया जाए। अधिकतर कर्मियों के लिए नेशनल पेंशन सिस्टम और एंप्लाइज प्रोविडेंट फंड सबसे अधिक प्रचलित निवेश विकल्प हैं। इन दोनों विकल्पों में निवेश से दोहरा लाभ मिलता है, टैक्स बचत के साथ इनसे निवेशकों को अच्छा रिटर्न भी प्राप्त होता है। हालांकि, दोनों में कौन सा विकल्प बेहतर है, यह एंप्लाई की रिस्क लेने की क्षमता, सिक्योरिटी लॉक इन, लिक्विडिटी और मेच्योरिटी इत्यादि फैक्टर्स पर भी निर्भर करती है। एनपीएस और ईपीएफ में बेहतर विकल्प चुनने के लिए कुछ महत्वपूर्ण बिंदु नीचे दिए जा रहे हैं, जिनके आधार पर आप फैसला कर सकते हैं कि किसमें निवेश बेहतर होगा।
ईपीएफ में योगदान:-
प्रोविडेंट फंड से जुड़ा कानून कई दशकों से है और 20 से अधिक कर्मियों वाले कंपनियों को इसे 15 हजार से कम की बेसिक सैलरी मासिक वाले अपने कर्मचारियों को आॅफर करना अनिवार्य है। हालांकि इससे अधिक कि बेसिक सैलरी वाले कर्मी भी इसमें कांट्रिब्यूट कर सकते हैं।
ईपीएफ में मिनिमम कांट्रिब्यूशन पीएफ सैलरी का 12 फीसदी होता है जो बेसिक सैलरी, डीए (महंगाई भत्ता), फूड कंसेशन का कैश वैल्यू और रिटेनिंग अलाउंस का एग्रीगेट होता है। कर्मियों की इच्छा के मुताबिक अधिकतम कांट्रिब्यूशन 15 हजार रुपये का 12 फीसदी यानी 1800 रुपये प्रति महीने तक सीमित किया सकता है। हालांकि कर्मी चाहें तो अपनी 100 फीसदी बेसिक सैलरी को ईपीएफ में वालंटरी कांट्रिब्यूशन कर सकते हैं।
एनपीएस में योगदान:-
ईपीएस के विपरीत एनपीएस पिछले दशक में शुरू किया गया था और भारत सरकार द्वारा शुरू किया गया पेंशन-कम-इंवेस्टमेंट है। भारतीय नागरिक और ओवरसीज सिटीजन आॅफ इंडिया कार्डहोल्डर्स इसमें निवेश कर सकते हैं। एनपीएस एक वालंटरी कांट्रिब्यूशन स्कीम है जिसमें टायर-1 में 500 रुपये और टायर-2 खाते में में न्यूनतम एक हजार रुपये का मिनिमम कांट्रिब्यूशन किया जा सकता है। कोई भी इंडिविजुअल अपने एंप्लायर के जरिए या स्वतंत्र रूप से एनपीएस से जुड़ सकता है। इसमें पैसे को निवेशक अपनी रिस्क लेने की क्षमता के मुताबिक इक्विटी, कॉरपोरेट डेट और गवर्नमेंट बांड्स में निवेश के लिए विकल्प का चयन कर सकते हैं।
एनपीएस पर टैक्स देनदारी/डिडक्शन:-
- रेगुलर टैक्स सिस्टम के तहत एंप्लॉयर के जरिए 1.5 लाख रुपये तक का एनपीएस में एंप्लाई कांट्रिब्यूशन कुल आय से डिडक्ट हो सकता है।
- रेगुलर टैक्स सिस्टम के तहत एंप्लाई का 50 हजार रुपये का अपना कांट्रिब्यूशन कुल आय में डिडक्ट हो सकता है।
- रेगुलर टैक्स सिस्टम के तहत एंप्लॉयर का बेसिक सैलरी का 10 फीसदी तक कांट्रिब्यूशन कुल आय से डिडक्ट हो सकता है।
- सरल टैक्स सिस्टम की बात करें तो केवल एंप्लॉयर द्वारा बेसिक सैलरी के 10 फीसदी तक कांट्रिब्यूशन ही डिडक्ट होता है।
- एनपीएस सब्सक्राइबर्स के 60 वर्ष की उम्र का होने पर उन्हें कॉर्पस से 60 फीसदी रकम निकालने की मंजूरी मिलती है। शेष 40 फीसदी रकम को एन्यूटी के रूप में इंडिविजुअल को पे किया जाता है। इसके अलावा योजना का हिस्सा बनने के 10 साल बाद कॉर्पस से 25 फीसदी तक रकम निकालने की मंजूरी मिलती है।
ईपीएफ पर टैक्स देनदारी/डिडक्शन:-
- ईपीएफ में रेगुलर टैक्स सिस्टम के तहत कुल आय से 1.5 लाख रुपये तक का एंप्लाई कांट्रिब्यूशन डिडक्ट हो सकता है। इसके अलावा बेसिक सैलरी के 12 फीसदी तक के एंप्लाई कांट्रिब्यूशन को अनुमति है।
- सिंप्लीफाइड टैक्स सिस्टम के तहत ईपीएफ में कोई डिडक्शंस नहीं मिलता है।
- पोस्ट सेशन आॅफ एंप्लॉयमेंट पर मिला ब्याज टैक्सेबल है।
- एंप्लॉयर के यहां पांच साल से कम की लगातार जॉब ने होने की स्थिति में अगर ईपीएफ से कोई राशि निकाली जाती है तो उस पर टैक्स देना होता है। हालांकि अगर बीमारी, एंप्लॉयर की कमजोर कारोबारी स्थिति या अन्य किसी ऐसी परिस्थिति में एंप्लाई ने लगातार जॉब नहीं की है, जो उसके नियंत्रण से बाहर था, तो उसे टैक्स नहीं देना होगा।
- (यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि अगर ईपीएफ, एनपीएस और सुपरएन्युएशन फंड में 7.5 लाख रुपये से अधिक का कांट्रिब्यूशन होता है तो एंप्लाई को टैक्स चुकाना होगा।)
ईपीएफ पर फिक्स्ड दर पर रिटर्न:-
पीएफ के तहत मिलने वाला रिटर्न सरकार तय करती है। केंद्र सरकार हर साल पीएफ के ब्याज दर का एलान करती है। इसके विपरीत एनपीएस पर मिलने वाला रिटर्न आपके चुने गए विकल्पों के एनएवी पर निर्भर करती है जो कम भी हो सकती है और बढ़ भी सकती है। इस प्रकार पीएफ में निवेश लगभग सुरक्षित रहता है और निश्चित रिटर्न मिलता है जबकि एनपीएस में रिस्क अधिक है और रिटर्न भी अधिक मिलता है। इस प्रकार आम लोगों के लिए दोनों विकल्पों के अपने टैक्स एडवांटेज हैं और बेहतर रिटर्न हैं।
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