कोई भी व्यक्ति नहीं चाहेगा कि वह पिछड़ा हुआ रहे या अपनी प्रगति, उन्नति या कहें विकास की दौड़ में फिसड्डी साबित हो। यही बात व्यक्ति के साथ समाज, देश और राज्य पर भी समान रूप से लागू होती है। नि:संदेह विकास होना चाहिए लेकिन नियोजित ढ़ंग से, जिसमें प्रकृति के साथ कोई खिलवाड़ न हो। आज हमारे देश में जो योजनाएं बनाई जा रही हैं, उनमें प्राकृतिक संतुलन की दिशा में कहीं कोई गहरी सोच परिलक्षित नहीं हो रही है। कहने का तात्पर्य यही है कि हमने स्वयं ही प्रकृति से बैर स्थापित कर लिया है। जंगलों को साफ करते जा रहे हैं। शहरों से पानी की निकासी के माध्यम नालों के अस्तित्व को समाप्त कर दिया है। तालाबों में पानी संग्रहण और भण्डारण के स्त्रोत समाप्त कर दिये।
यानी आज पर्वत, समुद्र, पेड़, नदी-नाले, जंगल और भूमि तक लगातार हमारे बेतरतीब दोहन और क्षरण के कारण दुरावस्था में हैं। परिणाम यह है कि वषार्काल में जल जमाव के गंभीर परिणाम भुगतने पड़ते हैं। अभी हाल ही में पश्चिम बंगाल में आए अम्फान तूफान के कारण भारी क्षति हुई है वहीं पंजाब, हरियाणा व राजस्थान में एक टिड्डी दल भी सक्रिय हो गया है जो फसलों को खा रहा है और सरकार के पास कोई समाधान नहीं है, ऐसे में कृषि क्रांति, जैविक खेती सब विफल हो जाती है। खनन से धरती खोखली हो रही है। इस वर्ष कई बार दिल्ली व आसपास के क्षेत्रों में भूकंप के झटके भी महसूस किए गए, जंगलों के विनाश व वन्य जीव शिकार नए-नए रोग आ रहे हैं व साथ ही कोरोना जैसी महामारी से विश्व जूझ रहा है। इन सभी समस्याओं को देखकर चलें तो देश में एक अजीब सा माहौल बना हुआ है। प्रकृति से छेड़छाड़ करने और बाढ़ से हर साल तबाही मच रही है और इसमें जानमाल का नुकसान हो रहा है। अब यह स्थिति क्यों है, इस पर भी विचार कर लिया जाए। प्रकृति का अपना चक्र है। उस पर किसी का जोर नहीं है लेकिन जब हम प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते हैं तो उसके भयानक परिणामों से भी दो-चार होना ही होता है, और यही हो भी रहा है।
वर्तमान दौर में हालात ये हैं कि सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरण की खुद की सेहत बिगड़ती जा रही है। बेतरतीब और अनियोजित विकास के कारण प्रकृति भी पिछले कुछ वर्षों से धरती के अलग अलग भूभाग पर, कहीं ज्वालामुखी फटने, कहीं सुनामी, कहीं भूकंप और कहीं बाढ़ के रूप में सचेत भी कर रही है कि अब देश और समाज दिखावों से आगे बढ़कर कुछ सार्थक पहल करे। विश्व के विकसित देश और समाज जहां प्रकृति के प्रति संवेदनहीन होकर मानव जनित वो तमाम सुविधाएं भोगते हुए स्वार्थी जीवन जी रहे हैं जो पर्यावरण के लिए घातक हैं। वहीं विकासशील देश भी विकसित बनने की होड़ में उसी रास्ते पर चल रहे हैं। यह भी स्पष्ट है कि आज विश्व समाज इनके प्रति बिलकुल गंभीर नहीं है जिसका खामियाजा प्राकृतिक आपदाओं के रूप में हमें भुगतना पड़ रहा है। आने वाला समय सम्पूर्ण मानवता के लिहाज से भयानक खतरों का संकेतक है। हमें समय रहते सचेत हो जाना चाहिए।अन्यथा आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी।
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