मध्यप्रदेश, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा किसानों का दो लाख रुपए तक का ऋण माफ किए जाने के बाद देश के अन्य राज्यों में भी कर्जमाफी को लेकर सियासत तेज हो गयी है। कांग्रेस ने संकेत दे दिया है कि 2019 के आमचुनाव में इस मसले पर सियासत करने से बाज आने वाली नहीं है। यानी समझें तो कर्जमाफी पर सियासत का अंतहीन सिलसिला थमने वाला नहीं है। अब उचित होगा कि केंद्र सरकार कर्जमाफी को लेकर ऐसी ठोस नीति बनाए जिससे किसानों का भला हो और यह सियासत का मुद्दा न बने। अगर कहीं सरकार इस मसले को सियासी दृष्टि से हल करने का प्रयास करेगी तो विपक्ष इसे मुद्दा बनाएगा और दूसरी ओर सरकार को 2019 के चुनाव तक किसानों का 2,57,000 करोड़ रुपए माफ करने को विवश होना पड़ेगा। बेशक किसानों की मदद जरुरी है लिहाजा एक सीमा तक उनका कर्ज माफ किया जाना चाहिए। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि कर्जमाफी को सियासत का औजार बनाकर सत्ता तक पहुंचने का मार्ग बना लिया जाए। इस खेल से राज्यों की आर्थिक सेहत बिगड़ेगी और बुनियादी सुविधाओं का विस्तार थमेगा।
यहां ध्यान रखना होगा कि 2008 में मनमोहन सिंह नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने किसानों का तकरीबन साठ हजार करोड़ रुपए माफ किया था। राहत पाने वाले ज्यादतर किसान महाराष्ट्र राज्य के थे। पर विडंबना यह देखिए कि अब फिर महाराष्ट्र के किसान कर्जमाफी की मांग कर रहे हैं। सवाल लाजिमी है कि कर्जमाफी की मांग का सिलसिला कब तक चलता रहेगा। इस बात की क्या गारंटी है कि देश के सभी राज्यों के किसानों का कर्ज माफ कर दिया जाए तो पुन: कर्जमाफी की मांग नहीं उठेगी? बेहतर होगा कि देश के सभी सियासी दल अपने चुनावी घोषणापत्र में कर्जमाफी की लासेबाजी करने से बचें और किसानों की सेहत सुधारने एवं कृषि उत्पादन में वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम उठाएं। इससे भविष्य में पुन: कर्जमाफी की नौबत नहीं आएगी। लेकिन यह तभी संभव होगा जब सभी राजनीतिक दल इस मसले पर सकारात्मक रवैया अपनाएंगे। अगर सभी दल इस मसले पर संवेदनशीलता दिखाएं तो किसानों को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में सार्थक रोडमैप तैयार हो सकता है। यहां समझना होगा कि कर्जमाफी का तरीका किसानों की दुर्दशा से निपटने का अंतिम हथियार नहीं है। अगर सचमुच किसानों की दशा सुधारनी है तो उनकी बुनियादी समस्या पर गौर करना होगा।
गौर करें तो कर्ज ही किसानों की आत्महत्या का एक प्रमुख कारण है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट पर गौर करें तो वर्ष 2015 में 8 हजार किसान और 12 हजार खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की। इस रिपोर्ट में आत्महत्या के लिए मुख्य रुप से कर्ज को ही जिम्मेदार माना गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2015 में कर्ज न चुका पाने के कारण 2978 किसानों ने आत्महत्या की जबकि खेती से जुड़ी अन्य समस्याओं के कारण 1494 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। किसानों द्वारा आत्महत्या करने की सबसे ज्यादा घटनाएं महाराष्ट्र, तेलंगाना और कर्नाटक में हुई है। महाराष्ट्र राज्य में सबसे ज्यादा 3030 किसानों ने आत्महत्या की है। अच्छी बात यह है कि देश के अन्य राज्यों विशेषकर बिहार, गोवा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, झारखंड, मिजोरम, नागालैंड, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल और केंद्र शासित प्रदेशों में किसानों और खेतिहर मजदूरों की आत्महत्या की एक भी घटना सामने नहीं आयी। लेकिन चिंताजनक तथ्य यह है कि सरकार द्वारा किसानों और कृषि संबंधी कई लाभकारी योजनाओं को आकार दिए जाने के बावजूद भी किसानों की आत्महत्या का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। सरकार को चाहिए कि वह कृषि फसलों को सिंचाई से संतृप्त करने के लिए नि:शुल्क बोरिंग योजना के तहत सामान्य श्रेणी के लघु, सीमांत तथा अनुसूचित जाति-जनजाति के किसानों को आर्थिक मदद दे ताकि उन्हें आर्थिक रुप से समृद्ध बनाया जा सके।
सरकार को उन्नत बीज और सब्सिडी युक्त खाद भी उपलब्ध करानी होगा। अच्छी बात है कि केंद्र सरकार ने किसानों की फसल को उचित मूल्य पर खरीदने का भरोसा दिया है। धन का भुगतान सीधे किसानों के खाते में जाने की व्यवस्था सुनिश्चित की है। लेकिन यहां ध्यान रखना होगा कि किसानों की दुर्दशा के लिए एकमात्र कर्ज ही जिम्मेदार नहीं है। अन्य बहुतेरे कारण भी जिम्मेदार हैं जिनमें खेती के विकास में क्षेत्रवार विषमता का बढ़ना, प्राकृतिक बाधाओं से पार पाने में विफलता, भूजल का खतरनाक स्तर तक पहुंचना और हरित क्रांति वाले इलाकों में पैदावार में कमी, फसलों और बाजारों में दूरी, फसलों का उचित मूल्य न मिलना, कृषि में मशीनीकरण और आधुनिक तकनीकी का अभाव प्रमुख है।
हालांकि सरकार राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, गुणवत्तापरक बीज के उत्पादन व वितरण तथा राष्ट्रीय बागवानी मिशन के जरिए कृषि की सेहत सुधारने की कोशिश कर रही है लेकिन अभी अपेक्षित परिणाम देखने को नहीं मिल रहे हैं। बेहतर होगा कि इन कार्यक्रमों को और अधिक धार दिया जाए। उचित यह भी होगा कि सरकार कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देने के साथ-साथ गैर-कृषि क्षेत्र को भी प्रोत्साहित करे ताकि ग्रामीण जनता की कृषि पर निर्भरता कम हो। गत वर्ष पहले वर्ल्ड वॉच संस्थान की रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि 1980 से 2011 के दरम्यान भारत में कृषि में लगी आबादी में 50 फीसद का इजाफा हुआ है। हालांकि गौर करें तो वैश्विक स्तर पर इस अवधि के दौरान कुल आबादी के हिस्से के रुप में कृषि आबादी कम हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक 2011 में विश्व की कृषि में लगी आबादी 37 फीसद थी और यह 1980 की संख्या के मुकाबले 12 फीसद की गिरावट दर्शाती है। हालांकि संख्या के स्तर पर समान अवधि के दौरान यह आबादी 2.2 अरब से बढ़कर 2.6 अरब हो गयी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन में ऐसी आबादी में 33 फीसद की वृद्धि हुई है जबकि अमेरिका में कृषि से जुड़ी आबादी 37 फीसद कम हुई है।
2008 में कृषि से कमाई के तौर पर 17,116 करोड़ का खुलासा हुआ जो 2011 में बढ़कर 2000 लाख करोड़ तक पहुंच गया। गौर करें तो यह रकम सकल घरेलू उत्पाद से कई गुना अधिक है। ऐसे में राजनीतिक दलों को समझना आवश्यक है कि कर्जमाफी ही किसानों की समस्या का एकमात्र हल नहीं है। बहुतेरे अन्य कारण भी हैं जिनपर विचार किया जाना आवश्यक है।
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