सशक्तिकरण का असल मायने
-भारत के गांव असल में भौतिक से ज्यादा, एक सांस्कृतिक इकाई ही हैं। इस दृष्टि से भी भारतीय गांव पूर्व की तुलना में अशक्त हुए हैं। इन्हे सशक्तिकरण की सख्त आवश्यकता है। सशक्तिकरण का मूल सिद्धांतानुसार, किसी भी संज्ञा या सर्वनाम के मूल गुणों को उभारकर शक्ति प्रदान करना ही उसका असल सशक्तिरण है। गांवों को शहर में तब्दील कर देना अथवा उसे शहरी सुविधाओं से भर देना, गांवों का असल सशक्तिकरण नहीं है। यदि गांवों का असल सशक्तिकरण और उसमें युवाओं की असल भूमिका को चिन्हित करना हो, तो ह में सबसे पहले भारतीय गांव नामक इकाई के मौलिक गुणों को चिन्हित करना होगा।
भारत में सड़क, दुकान, बिजली, प्राथमिक स्कूल, प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र और थानायुक्त गांवों की संख्या बढ़ रही है। गांवों में पक्के मकानों की संख्या बढ़ी है। मकानों में मशीनी सुविधाओं की संख्या बढ़ी है, शौचालय बढ़े हैं। मोबाइल फोन, मोटरसाइकिल और ट्रेक्टर बढ़े हैं। ऊंची डिग्री व नौकरी करने वालों की संख्या बढ़ी है। प्रति व्यक्ति आय और क्रय शक्ति में भी बढ़ोत्तरी हुई है। मजदूरी और दहेज की राशि बढ़ी है। ग्राम पंचायतों व ग्राम आधारित योजनाओं में शासन की ओर से धन का आवंटन बढ़ा है।
क्या बढ़ोत्तरी के उक्त ग्राफ को सामने रखकर हम कह सकते हैं कि भारत के गांव सशक्त हुए हैं? यदि हम भारतीय गांवों को सिर्फ एक भौतिक इकाई मानें, तो कह सकते हैं कि हां, पूर्व की तुलना में भारतीय गांव आज ज्यादा सशक्त हैं। भौतिक इकाई के तौर पर भी यदि हम भारतीय गांवों की मिट्टी, पानी, हवा, प्रकाश, वनस्पति, मवेशी और इंसानी शरीर की गुणवत्ता को आधार माने, तो कहना होगा कि पूर्व की तुलना में भारतीय गांव अशक्त हुए हैं।
मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं? क्योंकि अधिक अस्पताल, अधिक स्कूल, अधिक दुकानें, अधिक पैसा और अधिक थाने क्रमश: ज्यादा अच्छी सेहत, अधिक ज्ञान, अधिक स्वावलंबन, अधिक समृद्धि और कम अपराध की निशानी नहीं है। वर्ष 1947 की तुलना में आज कृषि उत्पादन नि:संदेह बढ़ा है, किन्तु वहीं तब के अनुपात में आज भारत में उतरते पानी वाले गांव, बीमार पानी वाले गांव, बंजर होते गांव, रोगियों की बढ़ती संख्या वाले गांव तथा ग्रामीण बेरोजगारों की संख्या कई गुना बढ़ी है। गांव की रसोई में कांस्य, पीतल और तांबे वाले अधिक मंहगे बर्तनों तथा जौ, चना, मक्का जैसे मंहगे अनाज, शुद्ध पुष्ट दूध तथा देसी घी की जगह आज क्रमश: सस्ते स्टील, सस्ते गेहूं, पानी मिले दूध तथा वनस्पति घी ने ले ली है।
भारतीय गांव के मौलिक गुण:
यह जगजािहर फर्क है कि नगर का निर्माण सुविधाओं के लिए होता है और प्रत्येक गांव तब बसता है, जब आपसी रिश्ते वाले कुछ परिवार एक साथ रहना चाहते हैं। ये रिश्ते खून के भी हो सकते हैं और परंपरागत जजमानी अथवा सामुदायिक काम-काज के भी। लेन-देन में साझे का सातत्य और ईमानदारी किसी भी रिश्ते के बने रहने की बुनियादी शर्तें होती हैं।
इस दृष्टि से एक गांव में रहने वाले सभी निवासियों के बीच रिश्ते की मौजूदगी पहला और एक ऐसा जरूरी मौलिक गुण है, जिसकी अनुपस्थिति वाली किसी भी भारतीय बसावट को गांव कहना अनुचित मानना चाहिए। साधन का सामुदायिक स्वावलंबन, आचार-विचार में सादगी तथा आबोहवा व खान-पान में शुद्धता को आप गांव के अन्य तीन आवश्यक मौलिक गुण मान सकते हैं। कृषि, मवेशी पालन व परंपरागत कारीगरी…तीन ऐसे आवश्यक पेशे हैं, जिन्हे भारतीय गांवों की आर्थिकी व संस्कृति की रीढ़ कह सकते हैं।
मौलिक गुणों की शक्ति :
ये ही वे गुण हैं, जिनकी मौजूदगी के कारण कभी प्रख्यात यूरोपीय विद्वान ई.वी. हैवल ने भारत के गांवों को प्रजातंत्र की आधारशिला बताया था। प्रसिद्ध पर्यटक ट्रैवनियर ने कहा था कि भारत में प्रत्येक गांव अपने आप में एक छोटा सा संसार है। बाहर की घटनाओं का उनके ग्राम्य जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इन्हीं मौलिक गुणों की समृद्धि के परिणामस्वरूप, भारत कभी सोने की चिड़िया कहलाया। इन्ही मौलिक गुणों के आधार पर भारत के गांवों में कभी खेती को उत्तम, व्यापार को मध्यम और नौकरी को निकृष्ट कहा जाता था।
ग्राम्य सशक्तिकरण की चुनौतियां:
ग्रामीण सशक्तिकरण के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है कि आज हमारे गांव, गांव बने रहने की बजाय, कुछ और हो जाने के इच्छुक दिखाई दे रहे हैं। कुछ लोग इसे ही सशक्तिकरण मान रहे हैं; जबकि ऐसे सशक्तिकरण के कारण भविष्य में भारत के गांव न गांव रह पायेंगे और न ही नगर हो पायेंगे। वे अधकचरे होकर रह जायेंगे। यह चित्र कैसे उलटे? गांव अपने मौलिक गुणों को पुन: कैसे हासिल करे ? यह अब युवा तन-मन के भरोसे ही संभव है। भारत के गांव प्रतीक्षा में हैं कि गांवों का यौवन पुन: बली हो। उसकी मुट्ठियां पुन: बंधें।
युवा चेतना पुन: ग्रामीण समुदाय के सशक्तिकरण में लगे। किंतु यह तभी संभव है, जब ग्रामीण युवा यह समझने को तैयार हो कि उसके गांव ने जो कुछ खोया है, वह मौलिक गुणों के खो जाने का ही परिणाम है। उसे समझना होगा कि रिश्ते की लगातार कमजोर पड़ती डोर के कारण साझे के जरूरी काम नहीं हो पा रहे। सामुदायिक भूमि, जल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का उचित प्रबंधन नहीं हो पा रहा। इसी कारण भारत में बेपानी व प्रदूषित पानी वाले गांवों की संख्या बढ़ रही है। इसी कारण साझे खेत व खेती लगातार घट रहे हैं।
सोच बदलने से बदलेगी दुनिया:
आई.ए.एस की नौकरी छोड़ने वाले बंकर रॉय का तिलोनिया स्थित बेयरफुट कॉलेज, जलपुरुष राजेन्द्र सिंह के साथ-साथ अलवर का उत्थान चित्र, हिवरे बाजार के पोपटराव पवार की सरपंची की विख्यात दास्तान, भारत की पहली एम.बी.ए. डिग्रीधारी महिला संरपंच होने के नाते चर्चा में आई राजस्थान के जिला टोंक की छवि रजावत…. ऐसे जाने कितने उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि गांव में रहकर भी बेहतर आय, बेहतर रोजगार, बेहतर सम्मान और शहर से अधिक आनंदमयी जीवन संभव है। किंतु इसके लिए ग्रामीण युवा को सबसे पहले अपनी मानसिकता व प्राथमिकता बदलनी होगी।
संभावनाओं का खुला आकाश:
शिक्षा : उसे यह भी समझना होगा कि सिर्फ डिग्री और नौकरी के लिए पढ़ने-पढ़ाने से गांवों का सशक्तिकरण असंभव है। ग्रामीण युवाओं को ऐसे ज्ञान की चाहत को प्राथमिकता बनाना होगा, जो उन्हे खेतीबाड़ी, मवेशी और स्थानीय संसाधन आधारित कारीगरी तथा विपणन का सर्वश्रेष्ठ व स्वावलंबी नमूना प्रस्तुत करने में सक्षम बनाये। ऐसा कुशल ग्राम अर्थशास्त्री बनना होगा ताकि गांव को आर्थिक उत्थान के लिए नगर की ओर ताकना न पड़े। गांवों में प्राइवेट उच्चतर माध्यमिक स्कूलों व स्नातकोत्तर कॉलेजों की बाढ़ आ गई है।
सामुदायिक व सहकारी आधार पर संचालित कृषि, मवेशी, जल, भूमि, आयुष, पारंपरिक कौशल उन्नयन तथा समग्र ग्राम प्रबंधन सिखाने वाली अच्छी तकनीकी व प्रबंधन पाठशालाओं का भारतीय गांवों में अभी भी अभाव है। बस, कुछ थोड़े से संजीदा युवा साथी एक बार यह तय कर लें, तो वे यह कर सकते हैं। कुश्ती, दौड़, निशानेबाजी, तैराकी जैसे ग्राम अनुकूल खेलों की नर्सरी बनाकर भी हमारे ग्रामीण युवा ग्रामोदय से भारतोदय की सक्षमता हासिल कर सकते हैं। ग्रामीण युवा को ऐसे ग्राम समाज का निर्माण करना होगा, जहां हम भिन्न जाति, संप्रदाय, वर्ग होते हुए भी पहले एक गांव हों। बंधुआ व बाल मजदूरी के दागों को पूरी तरह मिटाना होगा।
पंचायत: उसे ग्रामसभा की ऐसी उत्प्रेरक शक्ति बनना पड़ेगा, जो खुद सक्रिय हो और पंचायतीराज संस्थान की त्रिस्तरीय इकाइयों को सतत सक्रिय, कर्मठ तथा ईमानदार बनाये रखने में सक्षम हो। ‘ग्राम विकास योजना’ की धनराशि गांव-गांव पहुंचने लगी है। प्रत्येक ग्रामीण युवा चाहे, तो ग्रामसभा सदस्य की हैसियत से उचित ग्राम योजना निर्माण, मंजूरी तथा क्रियान्वयन में एक नायक की भूमिका निभाकर अपना युवा होना सार्थक कर सकता है।
कृषि : यह सिर्फ दुर्योग ही है कि बहकावे में आकर ग्रामीण युवा ने भी खेती को निकृष्ट मान लिया है। उसे स्व्यं से प्रश्न करना होगा कि भारतीय खेती और खेतिहर की आज दुर्दशा क्यों है ? उसे मंथन करना होगा कि यदि खेती सचमुच घाटे का सौदा है, तो फिर कई कंपनियां खेती के काम में क्यों उतर रही हैं ? कमी हमारी खेती में है या विपणन व्यवस्था में ? ऊंची पसंद वाले देसी, जैविक और हर्बल को अन्य से उत्तम समझ रहे हैं। बाजार भी इन्हे उत्तम बताकर मंहगे दाम पर बेच रहा है। पतंजलि उत्पादों का बढ़ता ग्राफ प्रमाण है कि ग्राहकों की दुनिया देशी बीज, योग और आयुर्वेदिक पर जान छिड़क रही है। समाधान यहां है।
स्वच्छता : गांवों ने शहरी खान-पान, रहन-सहन व पॉलीपैक उत्पाद तो अपना लिए, लेकिन शहर जैसा स्वच्छता तंत्र गांव के पास नहीं है, लिहाजा, भारतीय गांव, अब गंदगी और बीमारी के नये अड्डे बनने की दिशा में अग्रसर हैं। काली-पीली पन्नियां, बजबजाती नालियां और अन्य गंदगी के ढेर नई पहचान बनते जा रहे हैं। भारतीय गांवों की यह नई पहचान, किसी भी गांव के सशक्तिकरण के प्रतिकूल है। प्रतिकूलता के इन निशानों को मिटाना भी गांव का सशक्तिकरण ही है।
-अरुण तिवारी
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