कहावत है कि आलस्य को शत्रु समझने वाला व्यक्ति ही परिस्थितियों को अपने अनुरूप बनाने का सामर्थ्य रखता हे। जापान की युद्ध में पराजय के बाद एक अमेरिकी संस्था ने वहाँ अपनी शाखा खोली। संस्था में सभी कर्मचारी जापानी रखे गए। अमेरिकी कानून के अनुसार सप्ताह में पाँच दिन ही काम करने का निश्चय किया गया। संस्था के प्रमुख का सोचना था कि इससे जापानी कर्मचारी प्रसन्न होंगे, परन्तु यह देखकर वे हैरान रह गए कि कर्मचारी उस व्यवस्था का विरोध कर रहे थे। पूछने पर पता चला कि कर्मचारी सप्ताह में एक ही दिन का अवकाश चाहते थे। वे दो दिन छुट्टियाँ मनाने के खिलाफ थे। इस विचित्र माँग के पीछे उनका तर्क था कि हम अधिक अवकाश से इसलिए प्रसन्न नहीं हैं, क्योंकि जितना आराम बढ़ेगा, हमारा आलस्य भी बढ़ेगा और हम आलसी हो जाएँगे। मेहनत के काम में हमारा दिल नहीं लगेगा। इससे हमारा राष्टÑीय चरित्र भी गिरेगा। अतिरिक्त अवकाश के कारण ही हम व्यर्थ घूमेंगे-फिरेंगे जिससे फिजूलखर्ची होगी। जो हमारा चरित्र बिगाड़े, आर्थिक स्थिति खराब करे और हमारी आदतों को खराब करे ऐसा अवकाश किस काम का।
तीन प्रकार की बुद्धि
एक संत अपने शिष्यों को समझा रहे थे, ‘बुद्धि तीन प्रकार की होती है- कम्बल बुद्धि, पत्थर बुद्धि और बाँस बुद्धि।’ संत के इतना कहते ही एक जिज्ञासु शिष्य से रहा नहीं गया और वह बोला, ‘गुरुदेव! इन तीन प्रकार की बुद्धियों का अर्थ भी समझायें।’ संत समझाने लगे, ‘कम्बल में सुर्इं डालिए और फिर निकाल दीजिए। क्या कोई बता सकता है कि कम्बल में सुर्इं कहाँ डाली गई?’ विचार कर सभी शिष्य एक साथ बोले, ‘कोई नहीं बता सकता।’ कुछ बुद्धियाँ इसी प्रकार की होती हैं। बात बुद्धि में डाल दी पर बात समाप्त होते ही मैदान साफ। पता ही नहीं चलता कि बात बुद्धि में कहाँ डाली गई। संता बोले, ‘दूसर होती है, पत्थर बुद्धि। पत्थर में बड़ी कठिनाई से छेद होता है, पर जो छेद हो गया तो वह स्थायी हो गया। वह बंद नहीं हो सकता। इसे हम पत्थर बुद्धि कहते हैं। बात बड़ी मुश्किल से समझ में आती है, लेकिन एक बार समझ लेने के बाद व्यक्ति उसे भूल नहीं सकता। तीसरी होती है बाँस बुद्धि। बाँस में चाकू डालिए आगे से आगे वह स्वयं चिरता चला जाएगा। जरा इशारे में समझा दीजिए व्यक्ति आगे की बात स्वत: समझता चला जाएगा। तो शिष्यों बुद्धि तीन प्रकार की होती है, लेकिन बाँस बुद्धि ही सर्वश्रेष्ठ बुद्धि कहलाती है।’
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