सम्राट बिंबसार को सत्य का स्वरूप जानने की इच्छा हुई। उन्होंने भगवान महावीर से कहा- ‘भगवन्, मनुष्य को दुख से मुक्ति दिलाने वाले सत्य को मैं जानना चाहता हूँ। सत्य को मैं प्राप्त करना चाहता हूँ। उसे प्राप्त करने के लिए मेरे पास जो कुछ भी हैं, वह सब देने के लिए मैं तत्पर हूँ।’ सम्राट की बात सुनकर भगवान महावीर को लगा कि दुनिया को जीतने वाला सम्राट सत्य को भी उसी भाँति जीतना चाहता है। अहंकार के वशीभूत वह सत्य को भी क्रय की वस्तु मान रहा है और उसे खरीदना चाहता है।
उन्होंने बिंबसार से कहा- ‘सम्राट सत्य को प्राप्त करना होगा। अपने राज्य के पुण्य श्रावक से आप सामयिक का फल प्राप्त कीजिए। उसके सहारे सत्य और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं।’ बिंबसार सामयिक फल का अर्थ नहीं जानते थे। वे पुण्य श्रावक के पास गए और उन्होंने उनसे कहा- ‘श्रावक श्रेष्ठ, मैं याचक बनकर आपके पास आया हूँ। मैं सत्य को जानना चाहता हूँ। मुझे सामयिक फल दीजिए। उसके लिए आप जो मूल्य मांगोगे मैं दे दूँगा।’ श्रावक ने कहा- ‘महाराज! सामयिक फल कोई किसी को नहीं दे सकता। उसे तो खुद ही प्राप्त करना पड़ता है और अपने मन से राग-द्वेष को हटाने का ही दूसरा नाम है सामयिक फल। यह कोई किसी को कैसे दे सकता है? उसे तो आपको खुद ही प्राप्त करना होगा। सत्य को न खरीदा जा सकता है, न उसे दान या भिक्षा के द्वारा पाया जा सकता है।’ सम्राट बिंबिसार को अपनी गलती का अहसास हुआ। श्रावक ने उन्हें बताया, ‘शून्य के द्वार से सत्य का आगमन होता है, और अहं जब शून्य होगा तभी सत्य का आगमन होगा।
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